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________________ मुस्लिम आक्रांताओं के अनवरत आक्रमण के कारण लोद्रवा को असुरक्षित समझकर, भाटी जैसल द्वारा जैसलमेर नगर की स्थापना वि. सं. १२३४ के लगभग हुई। नगर व दुर्ग का निर्माण कार्य उनके पुत्र शालिवाहन के समय भी चलता रहा। प्रारम्भ से ही जैसलमेर का जैन-धर्म से प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो गया । 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' में वि. सं. १२४४ के वर्णन में अन्य नगरों के साथ जैसलमेर का भी उल्लेख है जैसलमेर भंडार में सुरक्षित पूर्णभद्र द्वारा वि. सं. १२८५ में रचित 'धन्यशाली भद्र चरित' (हस्तलिखित ग्रंथ सं. २७०) में भी जैसलमेर दुर्ग का जैन धर्म से सम्बन्ध सिद्ध है। जब वि. सं. १३४० में आचार्य जिन प्रबोध सूरि का आगमन जैसलमेर हुआ तो तत्कालीन भाटी-नरेश कर्णदेव अपने उच्चाधिकारियों, सेना व परिवार सहित उनके स्वागत को गये और राज्य में चातुर्मास व्यतीत करने का आग्रह किया। आचार्य श्री ने लोगों को दीक्षा दी। इसी प्रकार वि. सं. १३५६ में राजाधिराज जैत्रसिंह ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि के आगमन पर स्वयं जाकर उनका स्वागत किया और अगले वर्ष बड़े उत्साह के साथ मालारोपण उत्सव सम्पन्न हुआ । वि. सं. १३५८ में तोला ने अनेक जिन-प्रतिमाओं को प्रतिष्ठापित कराया। जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान केन्द्र बन गया । जैसलमेर दुर्ग के जैन मंदिर धार्मिक प्रवणता एवं कलात्मकता की निधि है । वि. सं. १२७५ में लिखित 'दश श्रावक चरित' की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जैसलमेर दुर्ग में पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण क्षेमेन्द्र के पुत्र जगधर द्वारा कराया गया। दुर्ग में आठ जैन मंदिर हैं जो १५ वी, १६ वीं शताब्दी की अनुपम कलाकृतियां हैं । १५-१६ वीं शताब्दी में मंदिर निर्माण का जो पुनर्जागरण राजस्थान व गुजरात परिसर में हुआ उसमें जैसलमेर के इन मंदिरों का विशिष्ट योगदान है। नागर शैली में विनिर्मित शिखरबद्ध ये मंदिर अपनी कलात्मक समृद्धि एवं मूर्तियों की भावभंगिमा की दृष्टि से मनमोहक हैं । मरुस्थली की गोद में एक ही शताब्दी में एक के बाद एक क्रमशः बने ये मंदिर - जैसलमेर की समृद्ध कलात्मक एवं स्थापत्य परम्परा के निदर्शक हैं । इनमें ५२ जिनालयों से युक्त चिन्तामणि पार्श्वनाथ का पीतवर्णी पाषाण विनिर्मित मंदिर प्राचीनतम एवं प्रमुख है। ऐसा भास होता है कि अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय इस प्राचीन मंदिर को पर्याप्त क्षति हुई अतः १५ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में पुरानी नींव पर वर्तमान मंदिर का निर्माण हुआ । इस मंदिर की नींव खरतरगच्छ के आचार्य जिनराजसूरि के उपदेश से श्री सागरचन्द्र सूरि ने वि. सं. १४५९ में डाली थी और चौदह वर्षों तक मंदिर का निर्माण कार्य निरन्तर चलता रहा। फलतः वि. सं. १४७३ में जिनवर्द्धन सूरि द्वारा मंदिर की प्रतिष्ठा की गयी। इस भव्य मंदिर के निर्माण का श्रेय ओसवाल वंशीय रांका गोत्र के श्रेष्ठि जयसिंह तथा नरसिंह को है। मंदिर में लगी दो प्रतियो हैं जिनमें इस मंदिर को बरतरासाद चूड़ामणि व 'लक्ष्मणविहार' की संज्ञा दी गई है । इसे 'वास्तु विद्या के बी. नि. सं. २५०३ Jain Education International अनुसार निर्मित कहा गया है। तत्कालीन भाटी नरेश लक्ष्मणसिंह के नाम पर मंदिर का नामकरण 'लक्ष्मण विहार' कर- जैसलमेर के जैन समुदाय ने अपनी निष्ठा एवं श्रद्धा अभिव्यक्त की है। मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है जो लोद्रवा से लाई गई है । संरचना की दृष्टि से मंदिर में सुन्दर तोरण, अपि मूलप्रसाद तथा ५२ जिनालय हैं। स्तंभ व वितान की कारीगरी उल्लेखनीय है । गर्भगृह के बाहर एक ओर जैसलमेर के पीले पत्थर से बनी सागरचन्द्राचार्य की हाथ जोड़े मूर्ति जड़ी हुई है जिनकी प्रेरणा से इस मंदिर का समारम्भ हुआ था । वि. सं. १५१८ में बनी शत्रुंजय, गिरनार एवं गंदीवर पट्टिका महत्वपूर्ण है। मंदिर का तोरणद्वार सुन्दर कलाकृति है। संभवनाथ मंदिर अपने विशाल जैन ग्रंथ भण्डार के लिए संसार प्रसिद्ध है। जिन भद्रसूरिजी के उपदेश से चोपड़ा गोत्रीय सा. हेमराज पूना आदि ने मंदिर वि. सं. १४९४ में प्रारम्भ कराया जिसे कुशल कारीगरों ने तीन वर्षों में सम्पूर्ण किया । वि. सं. १४९७ में आचार्य मिनभरि द्वारा इस मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक की गयी, जिसमें महारावल वैरिशाल स्वयं उपस्थित रहे। आचार्य श्री ने इस अवसर पर ३०० मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। इस मंदिर में पीले पाषाण पर खुदी हुई तपपट्टिका (२ फीट १० इंच x १ फुट १० इंच ) सुरक्षित है जिसे वि. सं. १५०५ में शंखवाल गोत्रीय श्रेष्ठि षेता ने बनवाया । इसमें बाएं तरफ २४ तीर्थंकरों के चार कल्याणक तिथियां (च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं ज्ञान ) तथा दाएं ओर तप के कोठे बने हैं । नीचे के भाग में उद्योतनसूरि से जिनभद्रसूरि तक खरतरगच्छ के आचार्यों की नामावली अंकित है। आबू पर्वत में भी ऐसी तपपट्टिका विद्यमान है। मंदिर के रंगमंडप की छत (वितान) और उसमें उकेरी मूर्तियां ( Bracket - Figures ) भव्य एवं मनमोहक है। मंदिर के प्रवेश की दोनों ओर कृत्रिम गवाओं ( False Window- Screens ) को जैन अष्ट मांगलिक चिन्हों से समलंकृत कर कलाकार ने अपने सौन्दर्य-बोध को मूर्त रूप प्रदान किया है। इस मंदिर की एक सपरिकर मूर्ति (नाहटा बीकानेर जैन लेख संग्रह, अभिलेख संख्या २७०१, पृ. ३८४) का निर्माता कलाकार सूत्रधार सांगण था जिसने वि. सं. १५१८ में उसे निर्मित किया । शीतलनाथजी के मंदिर का निर्माण डागा गोत्रीय लूणसाभणसा ने वि. सं. १५०९ में कराया था। इस मंदिर के श्वेत संगमरमर के जिनेन्द्र-पट्ट पर चतुविशति तीर्थंकरों का अंकन है तथा एक अन्य पट्टिका पर शत्रुंजय गिरनार के तीर्थों का भव्य लक्षण विद्यमान है। चंद्रप्रभस्वामी का मंदिर तिमंजना है जिसके प्रत्येक तले में चौमुखी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। गर्भगृह की प्रधान मूलनायक प्रतिमा आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की है जिसकी चरण-चौकी पर उलेख के अनुसार निरि ने वि. सं. १५०९ में उसकी प्रतिष्ठा की थी। इसे भणसाली गोत्रीय सा. वीदा ने बनवाया था । स्थापत्य की दृष्टि से For Private & Personal Use Only ११ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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