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________________ श्री तीर्थंकर परमात्माओं की लोकोत्तर चार उपमाएँ श्री विजय सुशील सूरि महाभयकर भवाटवी में परिभ्रमण करने से अत्यन्त भयभीत बने हुए जीवों को मुक्ति का मार्ग दिखाने के कारण सार्थवाहादि स्वरूप होने से अद्वितीय अनन्त उपकारी ऐसे अपहित तीर्थक परमात्मा ( भुजंग प्रयात वृत्तम ) महागोपरूपं महामाहण यंच, महासार्ववाहं च निर्यामकं वै । जगदवन्द्य तीर्थंकरं भुक्ति भाकैः, नमामि स्मरामि स्वमहन्तदेवम् ।। ___ अनादि अनंत विश्व में अनन्त उपकारी अरिहंत तीर्थकर परमात्मा है। अप्रतिम प्रभावशाली दानांतरायादि अष्टादश दोषों से रहित, अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्यों से सहित, जन्म से चार, कर्मक्षय से ग्यारह और देवों से किये गये उन्नीस इस प्रकार चौंतीस अतिशयों से सुशोभित तथा वारी के पैतीस गुणों से समलंकृत ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा संसार सागर में निमग्न प्राणियों के निरुपम (अप्रतिम) आलंबन श्री अरिहंतपद की व्याख्या ____ अनन्तगणों के भण्डार ऐसे विश्ववन्द्य, विश्वविभु श्रीअरिहंत तीर्थकर परमात्माओं की आगमशास्त्र में वर्णित चार महान लोकोत्तर उपमाएं अत्युत्तम हैं। उन चार लोकोत्तर उपमाओं के निम्नलिखित नाम है-- (१) महामोप (२) महामाहण (३) महानिर्यामक, और (४) महासार्थवाह इस संबंध में न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज सा. ने कहा है कि'महागोप महामाहण कहिये, निर्यामक सथ्थवाह। उपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमीये उत्साह रे भविका! सिद्धचक्रपद वंदौं, जेम चिरकाले नंदो रे भविका सिद्धचक्र।।" "श्री नमस्कार नियुक्ति" नाम के ग्रन्थ में इन उपमाओं के विषय में कहा हुआ है कि "अडबीइ देसिअतं, तहेव निज्जाभया समुटुंमि । छक्काय रक्खणट्ठा, महागोवा तेपा बुच्चंति ॥१॥ भवाटवी में सार्थवाह, भवसमुद्र में निर्यामक, एवं षट्काय के रक्षक होने से महागोप कहे जाते हैं। महागोपादि इन चार महाउपमाओं का क्रमशः स्वरूप दर्शन इस प्रकार है:-- १. महागोप-(अर्थात् महाग्वाला) जैसे गोपालक-ग्वाला गायों आदि पशुओं का पालन, संरक्षण करता है अर्थात् जहां सुन्दर हरियाली बनस्पति रहती है उस वनजंगल में चराने हेतु ले जाता है, एवं पशुओं को जहां पानी पीने के लिये नदी, सरोवर, तालाब, कप, झरना, बावड़ी आदि विद्यमान हो वहां पर पानी पिलाने हेतु ले जाता है तथा सिंह, बाघ, भेड़िया, भालू, चीता आदि वनचर हिंसक जानवरों से बचाता है अर्थात् गायों आदि पशुओं को भक्षण न कर जाय एतदर्थ चौकन्ना सदा सावधान रहता उसी प्रकार सर्वज्ञ श्री अरिहंत-तीर्थंकर भगवान भी संसार के एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीवों तक समस्त जीवों के हित के लिए आरम्भ समारम्भ आदि द्वारा विविध प्रकार की हिंसा से सर्वप्राणियों को बचाते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के वशीभूत आत्माओं का कर्मरूपी शत्रुओं से संरक्षण करते हैं। बी. नि.सं. २५०३ १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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