SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७. वात्सल्य-इसका अर्थ है प्रेम और स्नेह । जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब पर स्नेह और प्रेम रखता है, उसी प्रकार समाज के हर व्यक्ति पर प्रेम और स्नेह रखना ही वात्सल्य भाव है। ८. प्रभावना-प्रभावना का अर्थ है महिमा और कीर्ति । जिस कार्य को करने से अपने धर्म की महिमा हो और कीर्ति बढ़े, वह प्रभावना है। प्रभावना का कोई एक मार्ग और कोई एक पद्धति नहीं हो सकती। ज्ञान का प्रचार करने से, सदाचार को पवित्र रखने से तथा लोगों के साथ मधुर व्यवहार करने से धर्म की महिमा बढ़ती है। स्वयं द्वारा शुद्ध आचार पालन करना और दूसरों को शुद्ध आचरण पालन करने के लिए प्रेरित करना, यह भी प्रभावना का एक अंग है। त्याग, तपस्या और संघ सेवा भी प्रभावना का एक अंग है। मन से, वचन से और काया से दूसरों को पीड़ित करना, तीन प्रकार का दंड है। माया, निदान और मिथ्यात्व ये तीन शल्य हैं। धन-संपत्ति या ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति का घमंड, रसना-इन्द्रिय की संतुष्टि का घमंड, सुख प्राप्ति का घमंड, ये तीन गौरव हैं तथा जाति, कुल, सौंदर्य, शक्ति, लाभ, श्रुतज्ञान, ऐश्वर्य और तपस्या, ये आठ प्रकार के मद हैं। इन १७ प्रकार के दोषों में से तीन प्रकार के गौरव तथा आठ प्रकार के मद ये अहंकार कषाय रूप हैं। तीन प्रकार के दंड क्रोव-कपाय रूप हैं, तीन प्रकार के शल्य माया तथा लोभ कषायरूप हैं। अतः सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए इन दोषों का त्याग करना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है-निर्भयता । जहां भय है, वहां धर्म नहीं रह सकता, संस्कृति नहीं रह सकती । शास्त्र में कहा है कि जो व्यक्ति सत्य की साधना करना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने मन से भय को दूर कर दे। सम्यग्दर्शन ही अध्यात्म साधना का दिव्य आलोक है, जिससे जीव अपने सहज स्वरूप की उपलब्धि कर सकता है। अतः मानवजीवन की पवित्रता और पावनता का एक मात्र मूल आधार सम्यग्दर्शन ही है। जैन दर्शन के अनुसार जीवन मात्र के विकास का बीज सम्यग्दर्शन ही है। संदर्भ १. अध्यात्म-प्रवचन, उपाध्याय अमरमुनि । २. अध्यात्म-सार, उपाध्याय यशोविजयजी । ३. तत्वार्थ सूत्र, उमास्वाति, विवेचनकर्ता पं. सुखलालजी संघवी। ४. वल्लभ-प्रवचन (द्वितीय भाग) संपादक मुनि नेमिचन्द्र। ५. उत्तराध्ययन सूत्र, एक परिशीलन, डा. सुदर्शनलाल जैन । ६. आत्मानुशासन, आचार्य गुणभद्र । ७. उत्तराध्ययन, सूत्र संपादक साध्वी चंदना दर्शनाचार्य । ८. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ । (जैन समाज की दिशा : उत्थान या पतन; पृष्ठ १४६ का शेष) देना तो दूर, हम और हमारे धर्मगुरु स्वयं उसमें लिप्त हो जाते हैं । खाना हासिल नहीं कर सकता है। क्या ये आचरणहीन प्रवृत्तियां समाज को गर्त में नहीं धकेल रही हैं। एक अन्य बात यह है कि हम अपने समाज के प्रति उदासीन इसका भविष्य क्या होगा । इसके पीछे कुछ पेशेवर लोग हैं, जो हैं, अपनी मांगों, अधिकारों के प्रति रत्तीभर सचेष्ट नहीं हैं, आन्तएक दूसरे को नीचा दिखाने का शौक रखते हैं । समाज की एकता रिक विवाद में जितना आगे है, अधिकारों की लड़ाई में उतना की कीमत पर उनका शौक पूरा हो रहा है। ही पीछे। समाज का अगला दुर्गुण है कि हम एक समाज सेवी को सम्मान इसलिये साथियो, आगे आओ, हम पुरुषार्थ करेंगे। पुरुषाथियों नहीं दे रहे हैं । कोई इस समाज की सेवा में अपना तन, मन अर्पण का साथ देंगे । समाज में काम करते हैं, तो होता है, करने वाले कर देता है, इसे शीश काटकर अर्पण कर देता है, उसे शाबाशी नहीं, थक जाते हैं, तो कार्य ठप्प । कार्य रोकना नहीं है, तो इस समाज आलोचना मिलती है । इसलिये आज समाज सेवा का क्षेत्र संकुचित में जन्म और जीवन लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह रह गया है। ममाज सेवा शब्द का सरेआम उपहास होता है, क्यों उसे विकसित करे । इसके लिये हमें एक सामूहिक मंच तैयार करना यह क्षेत्र इतना बदनाम हुआ ? कारण फिर वही पेशेवर लोग या है। कोई भी अकेला व्यक्ति कोई खास कार्य नहीं कर सकेगा, वे ही ठेकेदार हैं जो समाज सेवा का मात्र लबादा ओढ़ लेते हैं, लेकिन इस मंच के जरिये वह अपनी भावनाओं के अनुसार समाज का समाज उनसे हिसाब मांगता है, तो झगड़े हो जाते हैं । समाज में शृंगार कर सकेगा । समाज को बदलना है, इसकी मांग से पुराना फूट पड़ जाती है, और ये ही बातें वास्तविक समाज-सेवियों के प्रति सिन्दूर निकाल कर फिर से नया भरना है, नवीन जागरण का सिंहकटुता पैदा करती है । दुर्भाग्य देखिये हमारा । धर्म आचार प्रधान नाद करना है, समाज नई क्रान्ति दर्शन के लिये तत्पर खड़ा है, होते हुए भी समाज अर्थ प्रधान बना हुआ है । रात के अन्धेरे में समाज को उत्थान की गंगा से स्नान करवाना है, क्रान्ति का बिगुल जो पूंजीपति धर्म, इसके सिद्धान्तों का मजाक उड़ाता है वह दिन के बजाना है, समाज को ऊंचा उठाना है, प्रगति के नये मार्गों का उजाले में सामाजिक सम्मान का दावेदार है । वह समाज की शुभारम्भ करना है, नहीं तो हमारा भविष्य मात्र एक प्रश्न वाचक तश्तरी में सम्मान रूपी खाना खा रहा है, और एक नि स्वार्थ चिन्ह बन कर सामने आयेगा। समाज सेवी समाज के लिये मर खप कर भी उस तश्तरी से कभी १५८ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy