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________________ "मा हण, मा हण" अर्थात् “मत मारो, मत मारो" इस प्रकार कहते थे। लोकोत्तर उपकारी ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा विश्व के समस्त प्राणियों को निरन्तर घोषणापूर्वक इस सन्देश को सुनाते हैं कि “मा हण? मा हण? मारो मत मारो मत अर्थात् किसी भी प्राणी को मत मारो, नहीं मारो। भले ही तुम संयम (चारित्र-दीक्षा) ग्रहण न कर सको तो भी शक्य यतना-जयणा अर्थात् जीवों को बचाने की तत्परता,विवेक और बुद्धि इन दोनों के समन्वय द्वारा अनर्थ दण्ड को अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसा को सर्वथा त्यागकर अर्थदण्ड क्षेत्र में भी संकोच करते रहो। ऐसे महापवित्र अनुपम संदेश विश्व के समस्त प्राणियों को सुनाकर "अर्हन्ती हि महामाणाः" अरिहंत परमात्मा ही महामाहण हैं । इस उपमा की सार्थकता केवल श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा ने ही की है। क्योंकि इस संसार में श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा ने ही अपने लोकोत्तर महापुरुषोचित भावकरुणारूपी जल का वर्षण किया है। ३. महानियमिक-अर्थात् महान सुकानी (नौकाओं, जहाजों को व्यवस्थित रूप से चलाने वाला नाविक ) महासमुद्र--सागर में मुसाफिरी करने वाले प्रवासी व्यक्ति को नौका-जहाजों की मजबूती की जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही जरूर उन नौका-जहाजों के चलाने वाले निपुण खलासी की और सुकान्ती की भी रहती है। अज्ञान और अविवेकादि द्वारा उत्पन्न विविध कर्मों के आक्रमण से भी बचाते हैं। सम्यक्त्वरूपी सुन्दर सरोवरादि के समीप ले जाकर सम्यक् ज्ञानरूपी जलपानी का पान करवाते हैं, सम्यक् चारित्ररूपी चारा चराते हैं, तथा संसार रूपी महाभयंकर वन-जंगल में से बाहर निकाल अनंत सुखरूप मंगलमय शाश्वत मोक्ष स्थिति की ओर भव्यात्म्य प्राणियों को ले जाते हैं । इन कारणों से ही श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा जिनेन्द्रदेव षड्कायिक जीव स्वरूप गाय आदि पशुओं के सच्चे संरक्षकपालक कहे जाते हैं। इसलिये जैनागम शास्त्रों में "अर्हन्तो हि महागोपाः" अर्थात् अर्हन्त-अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा ही महागोप हैं। इस प्रकार की यह लोकोत्तर महागोप की उपमा यथार्थ वास्तविक प्रतीत होती है। समस्त विश्व में सर्वोत्कृष्ट महागोप (महागोपाल-ग्वाला) कोई यदि हो तो केवल श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा ही हैं। २. महामाहण (अर्थात् बड़े माहण): "माहण? मा हण ? इत्येवं यो ब्रूयात् स माहणः।” (मत मारो, मत मारो) अर्थात् "किसी भी जीव की हिंसा मत करो" इस प्रकार जो कहता है वही महामाहण है । यह उपमा विश्व के समस्त जीवों को यह बतलाती है कि "कर्मों के द्वारा तुम मत मारो, मत मारो” अर्थात् कर्म शत्रुओं से नहीं मरने की प्रेरणा देने वाली यह उपमा है । भले ही तुमने आज तक कर्मों के पंजे में रहकर अमूल्य जीवन को बर्बाद किया है फिर भी अब ध्यान रखो कि कर्मों से मारे मत जाओ। इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान के प्रथम पुत्र तथा प्रथम चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा थे जो षट्खण्ड के अधिपति, श्रेष्ठ, चौदह रत्न, नव महानिधार और चौंसठ हजार श्रेष्ठ स्त्रियों के सुन्दर भर्तार, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख अश्व और चौरासी लाख रथ के स्वामी तथा छन्नु करोड़ गांव के और छन्नु करोड पैदल लश्कर के मालिक थे । इतनी समृद्धि के मालिक होने पर भी उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि यह सब मेरी आत्मा के अधःपतन का कारण है, ऐसा समझकर अपने विवेक और बुद्धि को जाग्रत करने हेतु तथा सार्मिक भक्ति का भी अनुपम लाभ मिले इस उद्देश्य से श्री भरत महाराजा ने साधमिक बन्धुओं का समुदाय रक्खा था। उन सबको भक्तिपूर्वक भोजन कराने के बाद वे सब आदर्श महाश्रावकों के साथ मिलकर चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा को कहते थे कि "जितो भवान् ? वर्द्धते भीस्तस्मान् मा हन ? मा हन? कर्म रिपुओं से आप जीते गये हो ? भय बढ़ता जा रहा है इसलिये कर्म शत्रुओं के द्वारा मत मारो। मत मारो । तदुपरान्त वे आदर्श महाश्रावकों को जहां-जहां हिंसा की संभावना हो वहां वहां जाकर जैसे भरे समुद्र-सागर में जल तरंगों से, ज्वार-भाटा आदि से चंचल व डगमगाती नाव-जहाजों को निपुण नाविक सावधानी से कुशलतापूर्वक सामने के किनारे-दूसरी ओर पहुंचा देता है, उसी प्रकार संसार रूपी महासमुद्र-सागर में अज्ञान मिथ्यात्वादि रूप तरंगों से टकराता हुआ संसारी जीवों की जीवन नौका को महानिर्यामक श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा संसार सिन्धु से पार करके मोक्ष रूपी महानगर में साधक को पहुंचा देते हैं। साधना के सोपानों पर चढ़ते हुए साधक के अन्त करण को विषय और कषाय आदि के भयंकर तूफान जब एकदम कम्पित करके मोड़ देने लगते हैं तथा साधना से साधक को विचलित करते हैं तब, परम उपकारी ऐसे महानिर्यामक श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा साधक आत्मा की जीवन नौका को श्रद्धारूपी पवन के अनुपम सहारा स्वरूप सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की त्रिवेणी की प्राप्ति रूप अद्वितीय सहयोग देकर अत्यन्त सावधानी से भवसिन्धु के किनारे लगाकर अनंत शाश्वत सुख के धाम स्वरूप मुक्तिपुरी में पहुंचा देते हैं। इसी कारण से ही श्री अरिहंत-तीर्थकर भगवान संसार के समस्त जीवों के महान उपकारी माने जाते हैं। इसलिये शास्त्रों में लोकोतर ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा को लोकोत्तर ऐसी "महानिर्यामक" उपमा दी गई है । - "अर्हन्तो महानिर्यामकाः।" राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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