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________________ वाले श्री अर्हन्त भगवान ही हैं, वास्ते प्रथम पद श्री अर्हन्त भगवान का नवकार मन्त्र में है। श्री सिद्ध भगवान का न तो कोई शरीर होता है, न वे पुनर्जन्म लेते हैं, और न उनको कोई विकृति होती है। श्री सिद्ध भगवान की स्तुति करते हुये जैन शास्त्र मर्मज्ञ पूज्य माधव मुनि महाराज सिद्ध स्तुति में पद गाते हैं । सेवो सिद्ध सदा जयकार, जासे होवे मंगलाचार, अज, अविनाशी, अगम अगोचर, अमल, अचल, अविधार, अन्तर्यामी, त्रिभुवन स्वामी, अमित शक्ति भण्डार ।। सेवो सिद्ध.. श्री सिद्ध भगवान के कितने सुन्दर नाम हैं, काव्य शास्त्रानुसार अनुप्रास की लड़ी है, एक समा बंध गया है, इसीलिये " अकार" धन्य हो गया कि श्री सिद्ध भगवान के नाम शब्दों में भी सर्वप्रथम अक्षर रूप में बैठा हुआ है । तीसरा पद आचार्य देव का है, जो "अकार" से ही प्रारम्भ होता है । "अकार" में स्वर "अ" तथा "आ" दोनों की गणना होती है, इस पद के प्रारम्भ अक्षर के रूप में "अकार" की ही प्रधानता है । चौथा तथा पांचवां पद भी कम महत्व का नहीं है । अब मैं आपके सामने उक्त पांचों पदों के संयुक्त रूप से बने ऐसे महामन्त्र के विषय में कुछ चर्चा करूँगा, जिस मन्त्र को हिन्दू समाज में मान्यता प्राप्त है, तथा जैन समाज में भी मान्यता प्राप्त है । ॐ शब्द की उत्पत्ति जैसा कि पूर्व में बताया गया है परमेष्ठी नमस्कार के पांच पद हैं, उनमें पहिला पद अरिहन्त भगवान का है, जिसका प्रथम अक्षर "अ" है तथा दूसरा पद सिद्ध भगवान का है, जो अशरीरी है याने अशरीर शब्द में भी "अ" अर्थात् अ, अ + आ बन जाता है । तीसरा पद आचार्य देव का है, जिसमें प्रथम अक्षर “अ” है अतः आ आ आ ही रहता है। चौथा पद उपाध्याय का है, जिसका प्रथम शब्द "उ" है याने आ + उ की संधि होने पर "ओ" बन जाता है। पांचवां पद साधु का है, याने साधु तथा मुनि एक ही होते हैं, अतः मननात् "मुनि” याने ओ + म की सन्धि होने पर ओम् शब्द की व्युत्पति होती है, इस प्रकार ओम् शब्द बन गया। कहा है: ऊंकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः । जैन शास्त्रानुसार कालचक जैन शास्त्रों में कालचक्र के दो भेद माने गये हैं। एक अवसर्पिणीकाल तथा दूसरा उत्सर्पिणी काल । एक-एक कालचक्र के छह और भेद होते हैं, अवसर्पिणी काल में अकर्म भूमि से कर्म भूमि बनती है, तथा यह काल पदार्थों की उत्पत्ति का उन्नति काल है। इतना ही नहीं, इस काल के चतुर्थ आरे में २४ तीर्थंकर होते हैं, जो भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताते हैं । इस काल में वी. नि. सं. २५०३ Jain Education International ऐसा समय है कि जीव मोक्ष गति अथवा सद्गति प्राप्त कर सकता है । इस अवसर्पिणी काल की यह विशेषता है कि इसमें २४ तीर्थंकर हुए, उनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए, जिनके नाम का प्रथम अक्षर "अ" ही है । तीर्थंकर भगवान की जो सेवा करते हैं, उनको केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर समवशरण की रचना करने वाले 'अमर' (देवता) ही होते हैं, इस प्रकार "अकार" की प्रधानता मानी गई है । वैष्णव धर्म अनुसार समुद्र मन्थन वैष्णव धर्म में देवता और राक्षसों के बीच में झगड़ा निपटाने के वास्ते समुद्र मन्थन किया गया, जिसमें १४ रत्न प्रकट हुए। चौदह रत्नों में जो प्रमुख रत्न प्राप्त हुआ, और जिससे देवता अमर बन गये, वह रत्न 'अमृत' ही था, जो 'अकार' के प्रभाव से नहीं बचा । धर्म की आराधना अर्हन्त भगवान चार तीर्थ की स्थापना केवलज्ञान प्राप्त होने पर करते हैं, (१) साधु (२) साध्वी (३) आवक (४) श्राविका ये चार तीर्थ रूपी संघ है। इस संघ को भगवान धर्म आराधना का उपदेश देते हैं । उसमें साधु संघ के वास्ते ५ महाव्रत तथा श्रावक संघ के वास्ते पांच अणुव्रत पालन का उपदेश देते हैं। वे इस प्रकार हैं (१) अहिंसा, (२) असत्य का त्याग, (३) अचौर्यवृत, ( ४ ) अब्रह्म का त्याग, ( ५ ) अपरिग्रह | इस प्रकार जैन दर्शन के जो पांच मूल सिद्धान्त हैं, उनमें सभी में प्रथम अक्षर के रूप में 'अकार' की प्रधानता है । वास्तव में देखा जाय तो उक्त पांचों सिद्धान्त महान् हैं । आज सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, सारा विश्व पीड़ा अनुभव करता है, कोई सुख अनुभव नहीं करता है । यदि उक्त सिद्धान्तों का पालन किया जाय तो सर्वत्र शान्ति हो सकती है, किन्तु आज का सिद्धान्त याने विज्ञान का सिद्धान्त Survival of the fittest मानता है । प्रत्येक राष्ट्र अपने को सबसे अधिक योग्य एवं शक्तिमान बनाना चाहता है, दूसरे राष्ट्र पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है, और यही कारण है कि प्रति दिन ऐसे अस्त्र शस्त्र बनाये जाते हैं, जो संहारक हों, दूरगामी मार करने वाले हों । गत महायुद्ध की विनाश लीला के ज्ञाता लोग विद्यमान हैं, भंयकर संहारक अस्त्र जिसने हिरोशिमा तथा नागासाकी ( जापान ) के नगरों का विध्वंस किया, वह बम भी तो अणुबम ही था । इसका प्रथम अक्षर भी "अकार" से संयुक्त है, अन्तिम तीर्थंकर याने अर्हन्त भगवान श्री महावीर ने उपदेश दिया कि Live and let live क्या सुन्दर तथा प्रभावशील सिद्धान्त है, इसका पालन न होने पर विनाश लीला का ताण्डव देखने को मिलता है। जैन शास्त्रों में अणु तथा परमाणु शब्द आते हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थों के वास्ते प्रयुक्त किये गये हैं। इस प्रकार आपने देखा कि जहां 'अकार' से प्रारम्भ होने वाले शब्द महानता को बताते हैं, वहां इसके विपरीत 'अम' जैसे संहारक पदार्थों For Private & Personal Use Only १४१ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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