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________________ अकार का महत्त्व श्री बद्रीलाल जैन अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहितो, सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः आचार्या: जिनशासनोन्नति करा, दूजा उपाध्याय काः । श्री सिद्धान्त सु पाठका: मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पंचते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ।। भारतवर्ष की नागरी लिपि अति प्राचीन है, यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि यह लिपि अन्य लिपियों की जननी है और इसका कारण यह है कि इस लिपि के स्वर एवं व्यञ्जन अन्य भाषालिपियों में भी समानता रखते हैं। नागरी लिपि में स्वर और व्यञ्जन हैं, और उनके संयोग से भाषा बनी है, चाहे आप संस्कृत को देखें, चाहे प्राकृत को, चाहे हिन्दी को, चाहे मराठी को, चाहे गुजराती को, किन्तु सभी में स्वर व्यञ्जन समान ही हैं। स्वर का अपना भिन्न अस्तित्व है, और व्यञ्जन का अपना भिन्न अस्तित्व है । स्वर के बिना व्यञ्जन की गति पंगु है, जब तक व्यञ्जन के साथ स्वर का संयोग न हो, वे अपना पूर्ण उच्चारण नहीं दे सकते हैं । स्वर में "अ" का स्थान सर्व प्रथम आता है, और यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि "अ" स्वरों में राजा है, और इसके बिना गति सम्भव नहीं है। इसलिये इसके विषय में ही कुछ लिखना आवश्यक समझा गया है । ___ इस लेख के प्रारम्भ में जो श्लोक लिखा है, उसमें अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी भगवान को नमस्कार किया गया है। यह पंच परमेष्ठी भगवान का नमस्कार जैन समाज में णमोकार मन्त्र या नवकार मन्त्र के नाम से जाना जाता है। जैन शास्त्र में इसकी बहुत महिमा है । यह मन्त्र सब मन्त्रों में महान है, मन्त्राधिराज है, तथा चौदह पूर्वो का सार इसमें वर्णित है। जिन महापुरुषों को इसमें नमस्कार किया है, वे महान हैं, उनके वैसे तो अनन्त गुण हैं, किन्तु जैनागम द्वारा पांचों पद को मिलाकर १०८ गुण बताये हैं, और यही कारण है कि हमारी प्रतिदिन की भजन की माला १०८ मणियों अथवा मोती की होती है, जिससे हम पंच परमेष्ठी भगवान के गुणों को माला के रूप में फेरते हुये अपनी साधना करते हैं। उपरोक्त श्लोक में सर्वप्रथम “अर्हन्त" भगवान को नमस्कार किया गया है । अर्हन्त उनको कहते हैं, जो घनघाती (१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय, ४. अन्तराय) कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे राग, द्वेष के विजेता होते हैं, और अपनी दिव्य एवं अमृतमय वाणी से संसार के भव्य जीवों को तिरने का मार्ग बताते हैं, वे अकर्म भूमि से कर्म भूमि में होने वाले जीवों को अपने जीवन जीने का मार्ग बताते हैं, याने वास्तविक जीवन क्या है, जीव कसे सद्गति प्राप्त कर सकता है, अर्थात् ये अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं । अत: परमेष्ठी पद में सर्वप्रथम अर्हन्त भगवान को ही वंदन किया जाता है। आप जानते हैं कि “अर्हन्त" शब्द का प्रारम्भ 'अकार' से ही होता है। दूसरा पद नमस्कार रूप में श्री सिद्ध भगवान का है, जो सर्व कर्म विनिर्मुक्त हैं, यद्यपि सिद्ध भगवान का स्थान अर्हन्त भगवान से बड़ा है, क्योंकि अर्हन्त भगवान भी सब संसार के कार्यों से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं तब दीक्षा ग्रहण करते समय “ओम् नमो सिद्धम्" कह कर दीक्षा स्वयमेव धारण करते हैं, किन्तु इनकी पहिचान कराने वाले, इनका उदबोधन देने १४० राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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