SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के लिये भी 'अकार' का ही प्रयोग हुआ है । यह 'अकार' जहां पालक के रूप में या तारक के रूप जहां प्रयोग में लाया गया, तो वहां संहारक के रूप में भी इसका प्रयोग हुआ है। मन्त्राक्षर नवकार मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्र के जहां साधन बताये हैं, वहां पर भी 'अकार' की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। जितने भी स्वर अथवा व्यंजन हैं उनका प्रयोग मन्त्राक्षर के रूप में होता है, इन्हीं स्वर व्यंजनों से बीजाक्षर भी बनते हैं, जो तान्त्रिक साधन में प्रयुक्त होते हैं 'ओम ह्रीं श्रीं अहम्" आदि इसी प्रकार योग साधन में हिन्दू धर्मशास्त्र में प्रयुक्त होता है, "अहम् ब्रह्मासि" आदि इसमें भी 'अकार' की प्रधानता है । वैद्यक ग्रन्थ जैसा कि ऊपर बताया गया है देवासुर द्वारा समुद्र मंथन से १४ रत्न प्राप्त हुये, उनमें अमृत कलश सहित श्री धन्वन्तरी भी पैदा हुए। अमृत रस का पान देवताओं को कराया गया, किन्तु देवताओं की पंक्ति में एक असुर रूप परिवर्तन करके बैठ गया, और अमत रस का पान कर गया। जिसका परिणाम यह हआ कि उसको पहिचान होने पर उस असुर का शिरोच्छेदन किया गया, तो उसका सिर अलग और धड़ अलग हो गया । वह अमृत पीने से मर नहीं सका, जो आज ज्योतिष विद्यानुसार राहु और केतु के रूप में रह कर मानव को त्रसित करता है । इस प्रकार "अ" से प्रारम्भ होने वाला अमृत रस प्रधान माना जाता है। उर्दू भाषा में इसे 'आबेहयात' कहते हैं, जो 'अकार' से प्रारम्भ होता है । अमृत रस को धन्वन्तरी वैद्यराज ने हिमालय की जड़ीबूटियों पर मानव हितार्थ छिटका, जिनमें कई बहुत गुणकारी प्रमाणित हुई। एक बूटी जीवनदायिनी है, जिसका प्रभाव नव जोवन प्रदान करता है, रामायण में उल्लेख है कि जब मेघनाद का शक्तिबाण लक्ष्मणजी को लगा, तब उनकी प्राण रक्षा के लिये हनुमानजी हिमालय पर्वत से जो बूटी लाये थे, वह संजीवनी बूटो थी, जिस पर अमृत कण गिरे थे और जीवनदायिनी के रूप में प्रभावित हुई। भाषा में प्रयोग 'अकार' प्रथम अक्षर का उपयोग संस्कृत, प्राकृत, मागधी, हिन्दी, मराठी आदि में है । इतना ही नहीं, गुजराती भाषा में भी 'अ' अकड़ा के नाम से जाना जाता है । उद भाषा में भी सर्वप्रथम वर्ण 'अलिफ' ही है, जिसका प्रारम्भ 'अ' से होता है, और इसी से कहा जाता है 'अल्लाहो अकबर' याने ईश्वर महान है, मुस्लिम धर्म में भी सृष्टि का कर्ता 'बाबा आदम' को ही माना गया है। पाश्चात्य भाषा इंग्लिश को वर्णमाला भी अकार' से अछूती नहीं है । ए., बी., सी., डी., ई., एफ आदि याने सर्वप्रथस ए. का उच्चारण अकार का बोधक है। ईसाई धर्म वाले भी सृष्टि की उत्पत्ति 'अबूब' तथा 'आदम' से मानते हैं, जिसमें प्रथम अक्षर की प्रधानता है। शरीर रचना हमारी शरीर रचना में पांच इन्द्रियाँ हैं । (१) आंख (२) कान (३) नाक (४) जीभ (५) त्वचा । 'अकार' से प्रारम्भ होने वाली आंख का महत्व बहुत अधिक है, वर्ना सब शून्य रहता है । कहा भी है-- यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्ती तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्शनः किम् करिष्यति ॥ यदि 'आंख' न हो तो सर्वत्र अन्धेरा ही रहता है। जैनागम भण्डार की कुंजी भगवान तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित वाणी जिसका आज समस्त जैन धर्मानुयायी अनुसरण करते हैं, वह प्राचीन काल में कण्ठस्थ करायी जाती थी, बाद में शास्त्र रूप में लिखी गई, जिसको जैन समाज में 'आगम' के नाम से जाना जाता है । जैनागम में ज्ञान का विपुल भण्डार है, और वह भण्डार एक तिजोरी के रूप में है, किन्तु जब तक तिजोरी की कुंजी न हो, वह भण्डार खोला नहीं जा सकता, और यह नहीं मालूम होता कि उसमें क्या अमल्य रत्न भरे पड़े हैं। अर्हन्त भगवन्त श्री महावीर द्वारा प्रतिपादित जैनागम एक अमूल्य निधि है । इस अमूल्य निधि का उपयोग करने वाला अक्षय सुख को प्राप्त करता है, किन्तु यह अमूल्य निधि कैसे प्राप्त की जाय, यह भण्डार कैसे खोला जाय, यह एक कठिन समस्या थी। यह समस्या कैसे सुलझाई जाय, तथा लोग या मुमुक्षु उस अमल्प भण्डार को किस प्रकार देख सकें. इस बात को ध्यान में रखकर जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान शास्त्र मर्मज्ञ, त्रिस्तुति सिद्धान्त के उद्धारक आचार्य प्रवर श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अनवरत तथा अथक परिश्रम करके जैनागम भंडार को खोलने वाले एक अमेर कुंजी तैयार की, ताकि उसके द्वारा भंडार खोलकर जैनागम का बोध प्राप्त कर सकें । वह कुंजी एक महान शब्दकोष के रूप में तैयार की, किन्तु उसका नाम रखते वक्त भी विचार किया गया कि क्या नाम रखा जावे, अतः वही अकार' की महता को ध्यान में रखते हये उक्त महान कोष का नाम “अभिधान राजेन्द्र कोष” रखा गया। यह ग्रन्थ जैनागम के ज्ञान के लिये परम सहायक है । देशविदेश सर्वत्र इसको प्रंशसा को गई, और यही अमर कृति उन महान सन्त की पावन स्मृति है । इस अमर कीति से उनका यज्ञ सौरभ दिगदिगन्त में व्याप्त है, ऐसे महापुरुष के प्रति मेरी भी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित है। मनुष्य मानवता रख कर ही मनुष्य है। मानवता में सभी धर्म, सिद्धान्त, सुविचार, कर्तव्य, सुकार्य आ जाते हैं। -राजेन्द्र सूरि १४२ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy