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________________ उपदेशों को संकलित करने वाले 'त्रिपिटक' महावीर को 'निगंठनाटपुत्त' के नाम से पुकारते हैं और इतिहास के पन्नों में निगंठ (निर्ग्रन्थ) (धम्म) धर्म का उल्लेख मिलता है। णमो अरिहंताणं-णमोकार पढ़ते पढ़ते जब पदमपुराण की पंक्तियां मानस में गूंजती हैं कि आर्हत धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है तो महावीर द्वारा प्रतिपादित 'धर्मोमंगल मुक्किट्ठ' के पूर्ववर्ती सूत्र सहज ही प्राप्त होने लगते हैं। जब इतिहास यह उद्घोष करने लगता है कि भारत में श्रमण परंपरा प्राक्वैदिक परंपरा है और जब महावीर परवर्ती ग्रन्थ उत्तराध्ययन निर्धान्त रूप में अभिव्यकत करता है कि 'समयाएसमणो होइ' समभाव की साधना करने से श्रमण होता है तो यह बात साफ होने लगती है कि महावीर ने जिस धर्म एवं दर्शन का प्रचार एवं प्रसार किया है, उसकी परंपरा प्राक् वैदिक युग से पोषित एवं विकसित होती आयी है। ___ जैन धर्म के महावीर-पूर्व-युगीन नामों का अस्तित्व अब अनुमानाश्रित नहीं, इतिहास के द्वारा अनुमोदित तथ्य है । भारतीय इतिहास श्रमण परंपरा, अर्हत, धर्म एवं निर्ग्रन्थ धर्म का तथ्यपरक उल्लेख करता है। श्रमण परम्परा 'श्रमण' शब्द 'श्रम' एवं 'सम' भाव को व्यक्त करता है। 'श्राम्यतीति श्रमणः तपस्यतीत्यर्थः' श्रम करने वाला श्रमण है और श्रम का भाव है तपस्या करना। श्रमण का व्युत्पत्यर्थ ही इसकी परम्परा के स्वरूपगत वैशिष्ट्य को प्रकट करता है। यह परंपरा अकर्मण्य, भाग्यवादी एवं भोगवादी नहीं, मानव के पौरुष की परीक्षा करनेवाली; कर्म में विश्वास रखनेवाली तथा अपनी ही साधना एवं तपस्या के बल पर 'तीर्थ' का निर्माण कर सकने की भावना में विश्वास रखकर तदनुरूप आचरण करने वाली साधना परंपरा है। इसी भाव को सायण टीकाकार ने व्यक्त किया है वातरशनाख्या ऋषभः श्रमणास्तपस्विनः श्रमण की 'सम' अर्थपरकता को श्रीमद् भागवत व्यंजित करता है 'आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः जैन ग्रन्थों में 'श्रमण' के उपयुक्त दोनों ही अर्थ प्रतिपादित एवं मान्य हैं। उत्तराध्ययन इसकी 'समभाव' साधना के अर्थ को उद्घाटित करता है' तो दशवकालिक सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक दर्शन सम्पन्न तथा संयम व तप में निरत श्रमण साधु के वैशिष्टयर्थक को व्यक्त करता है-- "नाणदंसण संपण्णं, संयमे य तवे रयं"9 श्रमण परंपरा की प्राचीनता के संबन्ध में श्री रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि अनुमान यह है कि श्रमण संस्कृति आर्यों के आगमन के पूर्व से ही इस देश में विद्यमान थी। ये श्रमण अवैदिक होते थे। ब्राह्मण यज्ञ को मानते थे, श्रमण उन्हें अनुपयोगी समझते थे।10 आर्हत धर्म भगवान महावीर के समय तक "आर्हत धर्म" या निर्ग्रन्थ धर्म शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकरों ने अर्हन्त होकर ही धर्म का उपदेश दिया। जैन दर्शन के “अहंत" शब्द की विशेष सार्थकता है। जब जीव कर्मों से पृथक होने का उपक्रम करके ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अंतराय कर्मों से अपने को पृथक् कर लेता है तब वह "केवलज्ञानी" हो जाता है और उसे 'अरहत्' संज्ञा की प्राप्ति होती है। अरहत् शब्द की व्युत्पत्ति अहं धातु से है, जो पूजा वाचक है। अहंतों द्वारा प्रतिपादित और अर्हन्तावस्था की उपलब्धि करने वाले 'अर्हत् धर्म' के सूत्र प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में कहा गया हैअर्हन्ता चित्पुरोदधेऽशेव देवावर्वते। निर्ग्रन्थ धर्म श्रमण परंपरा में जैन साधु निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। भगवान महावीर को भी इसी कारण पालि साहित्य में निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) कहा गया है। त्रिपिटकों में प्राप्त निर्ग्रन्थों की तपस्या के अनेक स्थलों का मुनि श्री नगराजजी ने अपनी पुस्तक "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" में उल्लेख किया है । जैन शास्त्रों में पाँच प्रकार के श्रमण बतलाये गये हैं१. निर्ग्रन्थ, २. शाक्य, ३ . तापस, ४. गेरूअ और ५. आजीवक । "निग्गिंथा, सवक, तावस, गेरूय, आजीव पंचहा समणा"18 जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ कहा गया है। वैदिक साहित्य में भी निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग मिलता है। निर्ग्रन्था निष्परिग्रहाः इति संवर्त श्रुतिः ।। श्रमण परम्परा के दिगम्बर (वातरशना) ऋषियों एवं मुनियों का उल्लेख प्राचीनतम ग्रन्थों में मिलता है। ऋग्वेद में वातरशना मुनि का वर्णन है "मुनयो वातरशनाः पिशड्गा वसते मला"15 दिगंबर ऋषि श्रमण एवं ऊर्ध्वरेता होते थे। इसकी पुष्टि उपनिषद् एवं भागवत करते हैं । तैत्तरियोपनिषद् का कथन है-- १०. रामधारीसिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२१ (तृतीय संस्करण ।) ११. ऋग्वेद ६/८६/५ १२. मुनि श्री नगराज-आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन १३. प्रवचन सारोद्धार ९४ १४. तैत्तरीय आरण्यक १०/६३ १५. ऋग्वेद १०/११/१३६/२ ३. पद्म पुराण १३/३५० ४. दशवकालिक १/१ ५. उत्तराध्ययन २५/३२ ६. सायन टीकाकार ५ ७. श्रीमद्भागवत १३/३/१८-१९ ८. उत्तराध्ययन २५-३२ ९. दशवकालिक ७/४९ वी.नि. सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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