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________________ महावीर पूर्व जैन धर्म की परंपरा : आत्मानुसंधान की यात्रा डॉ. महावीरसरन जैन भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं, प्रवर्तमान अवसपिणि काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं । जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार कालचक्र चलता रहता है । एक कालचक्र में काल की अपेक्षा दो भाग होते हैं। विश्व में कभी सामूहिक रूप से क्रमिक विकास होता है। कभी क्रमिक ह्रास । क्रमिक ह्रास वाला कालचक्र अवसर्पिणि काल है जिसके क्रमिक अपकर्ष काल १ अति सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुःषमा, ४. दुःषमा-सुषमा, ५. दुषमा, ६.अति दुःषमा है । यह दस कोटा-कोटि सागर की स्थितिवाला काल होता है। जिसमें पुद्गलों के वर्ण, गंध, रूप, रस, स्पर्श एवं प्राणियों की आय, अवगाहना, संहनन, बल, बल-वीर्य आदि का क्रमिक अपकर्ष एवं ह्रास होता है। ऋमिक विकास वाला काल चक्र उत्सपिणि काल है जिसमें क्रमिक उत्कर्ष काल १. अति दुषमा, २. दुषमा, ३. दुषमा-सुषमा, ४. सुषमा दुषमा, ५. सुषमा, ६. अति सुषमा है । अवसर्पिणि की चरम सीमा ही उत्सपिणि का प्रारंभ है । इस प्रकार उत्सपिणि अवसर्पिणि काल के उल्टे कम से उत्कर्षोन्मुख दस कोटा कोटि सागर की स्थिति वाला काल है। प्रवर्तमान अवसपिणिकाल में वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का जन्म हुआ तथा अवसर्पिणि काल के दुषमा-सुषमा पूरा होने के . ७४ वर्ष ११ महीने ७।। दिन पूर्व महावीर का जन्म हुआ । जैन मान्यता प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभदेव को प्रवर्तमान काल के चौबीसी तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर मानती है । कुछ विद्वानों ने मोहनजोदड़ो के खंडहरों से प्राप्त ध्यानस्थ नम योगी की मूर्ति को योगीश्वर ऋषभ की कार्योत्सर्ग मुद्रा के रूप में स्वीकार किया है। इसके विपरीत कुछ इतिहासकारों ने जैन १. डा. नेमीचंद शास्त्री ज्योतिषाचार्य, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा पृ. ३ । धर्म को बुद्ध धर्म के समानान्तर उत्पन्न धर्म मान कर इसकी पूर्व महावीरकालीन परंपरा को अस्वीकार किया। उनकी अस्वीकृति का मूल कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि "जिन' एवं 'जैन"" शब्दों का प्रयोग महावीरोत्तर युग के ग्रन्थों में मिलता है। 'दशवकालिक' में सौच्चाणं जिण सामणं, सूत्रकृतांग में अणुत्तरधम्म मिणं जिणाणं तथा "उत्तराध्ययन" में निणवमय' आदि शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग पढ़कर धर्म एवं दर्शन की अविरल परम्परा से अनभिज्ञ किसी भी अनुसंधित्सु को इस प्रकार की प्रतीति होना सहज है कि जिन शासन जिन मार्ग के उपदेशक महावीर ही जैन धर्म के संस्थापक रहे होंगे। शब्दों की यात्रा के साथ-साथ उपराम हो जाने का परिणाम इसी प्रकार का होता है। जीवन के प्रत्येक चरण में शब्द बदलते रहते हैं। बदलती हुई संस्कृति या वातावरण के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। भाषा में शब्दावली सहज ही प्रविष्ट होती रहती है और लुप्त होती रहती है। मनुष्य की आत्मा की खोज की यात्रा बहुत पुरानी है। उस यात्रा की साधना को व्यक्त करने वाली शब्दावली बदलती रहती है। 'जैन' शब्द का स्वतंत्र प्रयोग तो महावीर के बहुत बाद जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य में मिलता है। किन्तु जब हम ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ना आरंभ करते हैं तो अज्ञात युग के वाचक जगह जगह अपनी अतीत की स्मृतियों की याद दिला जाते हैं। महावीर के उपदेशों का संकलन करने वाले १२ ग्रन्थ में एक ग्रन्थ का नाम है 'नायाधम्म कहाओ' ज्ञातृ धर्म कथाये : इससे जैन धर्म के पूर्ववर्ती नामों की खोज की प्रेरणा अनायास प्राप्त होती है। महावीर के समसामयिक गौतम बुद्ध के २. आचार्य हस्तीमलजी महाराज-जैन धर्म का मौलिक इतिहास प्रथम खंड तीर्थकर खंड पृ. ४३ ११४ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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