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________________ वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमथिनौ बभूवः 118 इसी भाव को श्रीमद् भागवत में व्यक्त किया गया है--" वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः " 17 जैन तीर्थंकर महावीर पर्व प्रवर्तमान अवसर्पिणि काल के २३ तीर्थंकरों में से इतिहास भी प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ २२वें तीचंकर नेमिनाथ तथा २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्व स्वीकार करता है । ऋषभदेव—–श्रीमद् भागवत के अनुसार वातरशना श्रमणों के धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव ने किया 118 1 डा. हर्मन जेकोबी ने स्पष्ट लिखा है कि जैन परम्परा सर्व सम्मति से एकमतेन ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर अर्थात् आदि संस्थापक मानती है। इस पुष्ट परम्परा में ऐतिहासिकता हो सकती है "Jain tradition is unanimous in making Rishab, the first Tirthankar as the founder. There may be some historical tradition which makes him the first Tirthankar.19 विद्वान अब इस बात को मानते हैं कि ऋषभदेव उस अहिंसा परम्परा के आदि जनक थे, जिसके सूत्र प्राग्वैदिक हैं। "प्राग्वैदिक परम्परा के प्रभाव से अहिंसा, धर्म और अहिंसक यज्ञ की कल्पना भारत में बुद्ध से पहले फैल चुकी थी और उसके मूल प्रवर्तक घर-आंगिरस और ऋषभदेव थे। श्रमण परम्परा की प्राग्वैदिक परम्परा एवं भगवान ऋषभदेव का विवेचन आचार्य श्री तुलसी ने "Pre- Vedic Existance of SRAMAN Tradition में विस्तारपूर्वक किया है। 22 नेमिनाथ विद्वानों ने नेमिनाथ को श्रीकृष्ण के चचेरे भाई के रूप में स्वीकार किया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के ५० एवं ८२ वें श्लोकों में "शूरः शौरिजिनेश्वर" पाठ मानकर कृष्ण के साथ साथ अरिष्टनेमि का उल्लेख किया गया है । 22 जैन ग्रन्थों के १६. तैत्तरीयोपनिषद् २/७ १७. श्रीमद् भागवत ११/६/४७ १८. श्रीमद्भागवत ११/२/२०५/३/२० 19. Dr. Hermann Jakobi - Indian Antiquity. २०. रामधारीसिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२६ 21. Acharya Shree Tulsi-Pre- Vedic Existence of SRAMAN Tradition. Paper read at XXIV International Congress of Orientalists. New Delhi 4th January 1964. २२. श्रीचंद रामपुरिया महंत अरिष्टनेमि और वासुदेव कृष्ण पृ. ६ : श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता १९६० ई. ११६ Jain Education International अनुसार यादवों की राजधानी पहले शुरसेन प्रवेश में शोरपुर थी। शोरीपुर में जन्में शोरिजिनेश्वरः नेमिनाथ के उल्लेख अन्यत्र भी प्राप्त हैं। ये उसी प्रकार के ऐतिहासिक या पौराणिक व्यक्तित्व हैं जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण हैं । पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता जब असंदिग्ध है। पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर जन्म से २५० वर्ष पूर्व हुआ था और उनकी आयु १०० वर्ष थी । अतः पार्श्वनाथ का समय ई. पू. ८७७-७७७ है। भगवान महावीर एवं बुद्ध के समय पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं के व्यापक प्रभाव का उल्लेख मिलता है । आवश्यक सूत्र निति में वर्णित है कि जब भगवान महावीर कुमारक सनिवेश पधारे तो उद्यान में ध्यानावस्थित हो गए। उनके शिष्य गोशालक जब बस्ती में गए तो वहाँ उन्होंने कूपनय नामक एक धनाढ्य कुंभकार की माला में पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्य मुनिन्द्र को अपने शिष्यों सहित देखा जैन आगमों में पाश्वं संतानीव नियंग्य भ्रमण केशकुमार का अपने 'वृहत् शिष्य समुदाय के साथ महावीर के संघ में प्रविष्ट होने का उल्लेख है । उनके साथ महावीर के गणधर गौतम के विस्तृत वार्तालाप का भी उल्लेख है जिसमें वे दोनों इस बात पर भी विचार करते हैं कि महामुनि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया और स्वामी वर्द्धमान पांच शिक्षा रूप धर्म का उपदेश करते हैं। 24 पावनुगामी अन्य साधुओं के भी उल्लेख आगमों में मिलते हैं। जैन परम्परा महावीर के माता-पिता को भी पार्श्वपत्यीय (पार्श्वनाथ की परम्परा से संबंध रखने वाले ) श्रावक मानती है। यद्यपि महावीर ने अपना धर्मसंघ बनाया तथापि उन्होंने भी यह सदैव स्वीकार किया कि जो पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है, वही वे कह रहे हैं। 25 कुछ इतिहासकार राजा श्रेणिक की वंश परम्परा को पार्श्व से संबन्धित मानते हैं। डॉ. जायसवाल ने लिखा है कि राजा श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध आए थे। काशी में उनका वही राजवंश था जिसमें तीर्थंकर पार्श्व पैदा हुए थे। " डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी ने बुद्ध के जीवन से संबन्धित त्रिपिटक से एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया है जिससे यह निश्चित होता है कि वे बोधि प्राप्ति के पूर्व पार्श्व परम्परा से सम्बद्ध रहे थे । मफिम निकाय के महासिंहनाद सुत्त में वर्णित है कि भगवान बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहा- २३. आवश्यकः सूत्र नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति पूर्वभाग गा. ४७७ पत्र संख्या २७९ २४. उत्तराध्ययन सूत्र अ २३ २५. व्याख्या प्रज्ञप्ति, श. ५, उद्दे. ९सू. २२७ २६. डा. काशीप्रसाद जायसवाल - भारतीय इतिहास, एक दृष्टि पृ. ६२ For Private & Personal Use Only राजेन्द्र- ज्योति www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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