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________________ अपरिग्रह डॉ. वीणा जैन आज का मानव पार्थिव एषणाओं और भौतिक पिपासाओं की मरुमरीचिका के पीछे बेतहाशा दौड़ रहा है । उसे नहीं पता कि इस अविश्रान्त दौड़ का लक्ष्य बिन्दु क्या है ? उसे मालम नहीं कि उसकी मंजिल क्या है ? वह दौड़-दौड़ कर हांफ रहा है, पर फिर भी दौड़े ही जा रहा है। प्रश्न उठता है कि मनुष्य किस कारण इस संसार में मोहमाया के जाल में फंसा है। इस प्रश्न का उत्तर जैन धर्म में स्पष्टतः दिया गया है, वह है मनुष्य की परिग्रहवृद्धि । प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है "नत्स्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं" अर्थात् संसार में सब जीवों को जकड़ने वाले परिग्रह से बढ़कर कोई दूसरा बन्धन नहीं । आचारांग सूत्र में तो यहां तक कहा गया है कि-- _ 'लोक वित्तं च णं उवेहाए, एए संगो अविजाणओ” अर्थात् जीवात्मा ने आज तक जो भी दुःख परम्परा प्राप्त की है वह सब पर पदार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है अतः संयोग संबंध का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। वास्तव में परिग्रह क्या है ? आत्मा का बन्धनयुक्त होना ही परिग्रह है "परि समन्तात् आत्मानं गृहणातीति परिग्रहः"। पाणिनी ने भी परिग्रह की परिभाषा इस प्रकार की है कि परिग्रह वह है जो मनुष्य को चारों तरफ से घेरे रहता है “परिग्रहणं परिग्रहः” । जैन धर्म में मूर्छा (आसक्त) को परिग्रह कहा गया है मूर्छाः परिग्रह । जीवन में आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करना अनुचित नहीं है परन्तु उन वस्तुओं का न स्वयं उपयोग करना न दूसरों को करने देना यह मुर्छा का लक्षण है, आसक्ति है और यही संसार परिभ्रमण की जड़ है। परिग्रह होने या न होने के लिए यह आवश्यक नहीं कि वस्तु है या नहीं है, किन्तु इच्छा का होना और न होना आवश्यक है। केवल प्राप्त वस्तुओं का संग्रह ही परिग्रह नहीं है किन्तु जो अप्राप्त है पर उनके लिए तमन्नाएं है, लालसाएं हैं तो वे भी परिग्रह हैं । कहा भी है:-- "मून्निधियां सर्व, जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवा परिग्रहः" जिसकी मनोभावना आसक्ति से ग्रस्त है उसके लिए सारा संसार ही परिग्रह है । जो मूर्छा, ममता एवं आसक्ति से रहित है, उसके आधीन यदि सारा जगत भी हो तो वह अपरिग्रही है। जहां इच्छा है वहां परिग्रह है और जहां इच्छा का त्याग है, वहां परिग्रह का भी त्याग है, चाहे वह गृहस्थ करे अथवा साधु । ऐसा नहीं कि यदि गृहस्थ वस्त्रादि रखते हैं तो वे परिग्रही हैं और यदि साधु रखते हैं तो वे परिग्रही नहीं हैं । परिग्रही तो दोनो हैं पर वहां प्रश्न उन वस्तुओं के प्रति मूर्छा का आ जाता है। भगवान महावीर दशवकालिक सूत्र में कहते हैं:"न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा, मुच्छा परिग्गहोवृत्तो, इह वृत्तं महेसिणा।" ज्ञानपुत्र महावीर ने पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है । उन्होंने वास्तविक परिग्रह मूर्छा को कहा है। वस्तु का होना एक चीज है और परिग्रह की वृत्ति-ममता-मूर्छा रखना दूसरी चीज है। शास्त्रकार वस्तुओं को परिग्रह इसीलिए कह देते हैं कि उन वस्तुओं पर से ममता दूर हो जाये क्योंकि परिग्रह की वृत्ति हटाकर ही मनुष्य हल्का बन सकता है । वस्तुओं के प्रति मनुष्य की आसक्ति उस मक्खी की तरह होनी चाहिए जो मिश्री पर बैठती तो है और उसकी मिठास का आनन्द भी लेती है पर ज्योंही हवा का झोंका आता है तो उड़ बी.नि.सं. २५०३ ४१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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