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________________ है, अत: इसके लिए समन्वयनीति का विशेष प्रयोजन है। साथ ही धर्माचरण का भी महत्त्व है। उसे लौकिक विधियों का भी पालन करना आवश्यक है। इसीलिए कहा गया है सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम्॥ -सोमदेवसरि : उपासकाध्ययन —जैनों को सभी लौकिक विधियाँ प्रमाण हैं, शर्त यह है कि सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रतों में दोष न लगे। श्रावक-व्रतरूपी सिक्के के दो पहलू होते हैं—१. धर्मपरक और २. नीतिपरक। श्रावक व्रतों के अतिचार भी इसी रूप में सन्दर्भित हैं। उनमें भी नीतिपरक तत्त्वों की विशेषता है। ठाणांगसूत्र में जो अनुकंपादान, संग्रहदान, अभयदान, धर्मदान, कारुण्यदान, लज्जादान, गौरवदान, अधर्मदान, करिष्यतिदान और कृतदान—यह दस प्रकार के दान१६ बताये गये हैं, वे भी प्रमुख रूप से लोकनीतिपरक ही हैं। उनकी उपयोगिता लोकनीति के सन्दर्भ में असंदिग्ध है। इसी प्रकार ठाणांगसूत्र में वर्णित दस धर्मो २० में से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म आदि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नीति से है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन नैतिक द्रष्टिबिन्दु स्वहित के साथ-साथ लोकहित को भी लेकर चलता है। गृहस्थ-जीवन में तो लोकनीति को स्वहित से अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ है। __ भगवान् के उपदेशों में निहित इसी समन्वयात्मक बिन्दु का प्रसारीकरण एवं पुष्पनपल्लवन बाद के आचार्यों द्वारा हुआ। आचार्य हरिभद्रकृत धर्मबिन्दुप्रकरण२१ और आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र२२ में मार्गानुसारी के जो ३५ बोल २३ दिये गये हैं वे भी सद्गृहस्थ के नैतिक जीवन से सम्बन्धित प्रवचनसारोद्वार में श्रावक के २१ गुणों में भी लगभग सभी गुणनीति से ही सम्बन्धित हैं। इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा निर्धारित नीति-सिद्धान्तों का लगातार विकास होता रहा और अब भी हो रहा है। यद्यपि नीति के सिद्धान्त वही हैं, किन्तु उनमें निरन्तर युगानुकूल परिमार्जन और परिष्कार होता रहा है, यह धारा वर्तमान युग तक चली आई है। महावीर-युग की नैतिक समस्याएँ और भगवान् द्वारा समाधान भगवान् महावीर का युग संघर्षों का युग था। उस समय आचार, दर्शन, नैतिकता, सामाजिक १९. दसविहे दाणे पण्णत्ते, तंजहाअणुकंपासंगहे चेव, भये कालुणिये इय। लज्जाए गारवेण य, अहम्मे पुण सत्तमे। धम्मे य अछमे कुत्ते कहीइ य कतंति य। -ठाणांग १०/७४५ २०. दसविहे धम्मे पण्णत्ते तंजहा(१) गामधम्मे, (२) नगरधम्मे, (३) रट्टेधम्मे, (४) पासंडधम्मे, (६) गणधम्मे, (७) संघधम्मे, (८) सुयधम्मे, (९) चरित्तधम्मे, (१०) अस्थिकायधम्मे। -ठाणांग १०/७६० २१. आचार्य हरिभद्र-धर्मबिन्दुप्रकरण १, २२. आचार्य हेमचन्द्र-योगशास्त्र १/४७-५६ २३. मार्गानुसारी के ३५ बोलों और श्रावक के २१ गुणों का नीतिपरक निवेचन अन्यत्र किया गया हैं। २४. प्रवचनसारोद्धारदार २३९, गाथा १३५६-१३५८. संपूर्ण सुख में रहने वाला मानव जब दुःख के दावानल के बीच फंस जाता है तब वह दुःख का मुकाबला कर नहीं सकता। २१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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