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________________ संगठन की महत्ता स्वीकृत की गई है। 'संघे शक्ति: कलौ युगे' कलियुग में संगठन में ही शक्ति है। इन शब्दों में सामूहिकता की ही नीति मुखर हो रही है। आधुनिक युग में प्रचलित शासनप्रणाली प्रजातन्त्र का आधार तो सामूहिकता है ही। प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा है-United we stand divided we fall. —सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित.होने पर हमारा पतन हो जाता है। सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है। स्वहित और लोकहित स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्त्वपूर्ण पहलू रहे हैं। विदुर११ और चाणक्य ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है- अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीए, जीवन उसी का है।१३ यहाँ तक कहा गया है जिस जीवन में लोकहित न हो उसकी तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है।१४ इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांगी नीति-धाराएँ नीति-साहित्य में प्राप्त होती हैं। लेकिन भगवान महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना। इसका कारण यह है कि भगवान् की द्रष्टि विस्तृत आयाम तक पहुँची हुई थी। उन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया। स्वहित का अर्थ स्वार्थ और लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया। अपितु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना। इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता-जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके। __ उन्होंने अपने साधुओं को स्व-पर कल्याणकारी बनने का सन्देश दिया। इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया। श्रमणजन अपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं। भगवान् की वाणी लोकहित के लिए है।१५ पांचों महाव्रत स्वहित के साथ लोकहित के लिए भी हैं।१६ अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है|१७ 'णमोत्थुणं' सूत्र में तो भगवान् को लोकहितकारी बताया ही है। भगवान् स्वयं तो अपना हित कर ही चुके होते हैं; किन्तु परिहन्तावस्था की सभी क्रियाएँ, उपदेश आदि लोकहित ही होती हैं। __साधु जो निरन्तर (नवकल्पी) पैदल ही ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, उसमें भी स्वहित के मायालोकहित सन्निहित है। ही श्रावकवर्ग और साधारणता देते हैं। सिद्धान्तों में लोकहित श्रमण साधुओं के समान ही श्रावकवर्ग और साधारण जन भी, जो भगवान् महावीर की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, स्वहित के साथ लोकहित को भी प्रमुखता देते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगवान महावीर द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों में लोकहित को सदैव ही उच्च स्थान प्राप्त हुआ है और उनका अनुयायीवर्ग स्वहित के साथ-साथ लोकहित का भी अविरोधी रूप से ध्यान रखता है तथा इस नीति का पालन करता है। भगवान् महावीर ने इन विशिष्ट नीतियों के अतिरिक्त सत्य, अहिंसा, करुणा—जीव-मात्र पर दया आदि सामान्य नीतियों का भी मार्ग प्रशस्त किया तथा इन्हें पराकाष्ठा तक पहुँचाया। नीति के सन्दर्भ में भगवान ने इसे श्रमण नीति और श्रावक नीति के रूप में वर्गीकृत किया। श्रावक चूंकि समाज में रहता है, सभी प्रकार के वर्गों के व्यक्तियों से उसका सम्बन्ध रहता ११. विदुरनीति १६, १२. चाणक्यनीति १/६: पंचतन्त्र १/३८७ १३. सुभाषित, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. २०८, १४. वही, पृष्ठ २०५ १५. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्फध २, अ. १, सू. २१ १६. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्कन्ध २, अ. १, सू., १७. शकस्तब-आवश्यकसूत्र १८. श्रावक व्रत और उनके अतिचारों के नीतिपरक विवेचन के लिए देखें लेखक की जैन नीतिशास्त्र पुस्तक का सैद्धान्तिक खण्ड (अप्रकाशित) २१८ पाप का उदयकाल होता है तब पुण्य भी स्तंभित हो जाता है। पुण्य के उदयकाल में पाप स्तंर्मित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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