SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऊँच-नीच की धारणाएँ, दास-दासी-प्रथा आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ थीं। सभी वर्ग उनमें भी समाज में उच्चताप्राप्त ब्राह्मणवर्ग अपने ही स्वार्थों में लीन था, मानवता पद-दलित हो रही थी, क्रूरता का बोलबाला था, नैतिकता को लोग भूल से गये थे। ऐसे कठिन समय में भगवान् महावीर ने उन समस्याओं को समझा, उन पर गहन चिन्तन किया और उचित समाधान दिया। १. नैतिकता के दो दृष्टिकोणों का उचित समाधान उस समय ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित हिंसक यज्ञ एक ओर चल रहे थे तो दूसरी और देह दण्डरुप पंचाग्नि तप की परम्परा प्रचलित थी। यद्यपि भ. पार्श्वनाथ ने तापसपरम्परा के पाखंड को मिटाने का प्रयास किया किन्तु वे नि:शेष नहीं हए थे। भगवान् महावीर ने यज्ञ, याग, श्राद्ध आदि तथा पंचाग्नि तप को अनैतिक (पापमय) कहा और बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, इसमें पापकारी प्रवृत्तियों नहीं होनी चाहिए। उन्होंने विचार और आचार के समन्वय की नीति स्थापित की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुभ विचारों के अनुसार ही आचरण भी शुभ होना चाहिए। तथा शुभ आचरण के अनुरूप विचार भी शुभ हों। यों उन्होंने नैतिकता के बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों पक्षों का समन्वय करके मानव के सम्पूर्ण (अन्तर्बाह्य) जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा की। २. सामाजिक असमानता की समस्या उस युग में जाति एवं वर्ण के आधार पर मानव-मानव में भेद था ही, एक को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझा जाता था, किन्तु इस ऊँच-नीच की भावना में धन भी एक प्रमुख घटक बन गया था। धनी और सत्ताधीशों को सम्मानित स्थान प्राप्त था, जबकि निर्धन सत्ताविहीन लोग निम्न कोटि के समझे जाते थे। शूद्रों-दासों की स्थिति तो बहुत ही दयनीय थी। वे पशु से भी गये बीते माने जाते थे। यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से तो विषम थी ही, साथ ही इसमें नैतिकता को भी निम्नतम स्तर तक पहुँचा दिया गया था। भगवान् महावीर ने इस अनैतिकता को तोड़ा। उन्होंने अपने श्रमणसंघ में चारों वर्गों और सभी जाति के मानवों को स्थान दिया तथा उनके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया। चाण्डालकुलोत्पन्न साधक हरिकेशी२५ की यज्ञकर्ता ब्राह्मण रुद्रदेव पर उच्चता दिखाकर नैतिकता को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसी प्रकार चन्दनबाला२६ के प्रकरण में दास-प्रथा को नैतिक दृष्टि से मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध किया। मगध सम्राट् श्रेणिक७ का निर्धन पूणिया के घर जाना और सामायिक के फल की याचना करना, नैतिकता की प्रतिष्ठा के रूप में जाना जायेगा, यहाँ धन और सत्ता का कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व है नैतिकता का, पूणिया के नीतिपूर्ण जीवनका। भगवान महावीर ने जन्म से वर्णव्यवस्था के सिद्धान्त को नकार कर कर्म से वर्णव्यवस्था२८ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और इस प्रतिपादन में नैतिकता को प्रमुख आधार बनाया। उस युग में ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित यज्ञ के बाह्य स्वरूप को निर्धारित करने वाले लक्षण को भ्रमपूर्ण बताकर नया आध्यात्मिक लक्षण दिया, जिसमें नैतिकता का तत्त्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मानव की जकड़न से मुक्ति उस युग का मानव दो प्रकार के निविड बन्धनों से जकड़ा हुआ था- (१) ईश्वर कर्तृत्ववाद २५. उत्तराध्ययन सूत्र, १२ वाँ हरिकेशीय अध्ययन, २६. महावीरचरियं, गुणचन्द्र २७. श्रेणिकचरित्र, २८. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २५, गा. २७, २१ आदि। २९. उत्तराध्ययनसूत्र १२/४४ २२० साधु पूरुषों के प्रभाव से अनेक पापी आत्मायें सत्य मार्गपर विचरण करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy