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________________ अनुशासन एवं विनयनीति विनय एवं अनुशासन संसार की ज्वलंत समस्यायें है। अनुशासन समाज में सुव्यवस्था का मूल कारण है और विनय जीवन में सुख-शान्ति प्रदान करता है। यद्यपि विनय तथा अनुशासन को सभी ने महत्व दिया है, किन्तु भगवान महावीर ने इसे जीवन का आवश्यक अंग बताया है। उन्होंने तो विनय को धर्म का मूल - "विणयमूलो धम्मो' कहा है। विनय का लोकव्यवहार में अत्यधिक महत्व है। एक भी अविनयपूर्ण वचन कलह और केश का वातावरण उत्पन्न कर देता है, जबकि विनय-निति के पालन से संघर्ष की अनि शांत हो जाती है, वैर का दावानल सौहार्द में परिणत हो जाता है। विनय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की कुंजी है। लेकिन विनयनीति का पालन वही कर पाता है, जो अनुशासित हो, अनुशासन पाकर कुपित न हो। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा अणुसासिओ न कुपिज्जा और विणए ठविज अप्पाणं ।। विनय में स्थित रहे, विनय नीति का पालन करे। गुरुजनों, माता-पिता आदि का विनय परिवार में सुख-शांति का वातावरण निर्मित करता है तथा मित्रों, सम्बन्धियों, समाज के सभी व्यक्तियों के प्रति विनययुक्त व्यवहार यश-कीर्ति तथा प्रेम एवं उन्नति की स्थिति के निर्माण में सहायक होता है। मित्रता (Friendship) को संसार के सभी विचारक श्रेष्ठ नीति स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि सिर्फ अपनी ही जाति तक सीमित रह गई, कुछ थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के साथ मित्रता नीति के पालन की बात कही। किन्तु भगवान् महावीर की मैत्री-नीति का दायरा बहुत विस्तृत है, वे प्राणीमात्र के साथ मित्रता की नीति का पालन करने की बात कहते हैं मित्तिं भूएसु कप्पए। प्राणीमात्र के साथ मैत्री का मित्रता की नीति का संकल्प करे। भगवान् की इसी आज्ञा को हृदयंगम करके प्रत्येक जैन यह भावना करता है प्राणीमात्र के साथ मेरी मैत्री (मित्रता) है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई। मित्रता की यह नीति स्वयं को और अपने साथ अन्य सभी प्राणियों को आश्वस्त करने की नीति है। सामूहिकता की नीति सामूहिकता अथवा एकता सदा से ही संसार की प्रमुख आवश्यकता रही है। बिखराव अलगाव की प्रवृत्ति अनैतिक है और परस्पर सद्भाव-सौदाद-मेल-मिलाप नैतिक है। भगवान् महावीर ने सामूहिकता तथा संघ-ऐक्य का महत्त्व साधुओं को बताया। उनके संकेत का अनुगमन करते हुए साधु भोजन करने से पहले अन्य साधुओं को निमन्त्रित करता और कहता है कि यदि मेरे लाये भोजन में से कुछ ग्रहण करें तो मैं संसार-सागर से तिर जाऊँ। साहू हुज़ामि तारिओ दशवैकालिकसूत्र के इन शब्दों से यही नीति परिलक्षित होती है। वैदिक परम्परा में भी सामूहिकता अथवा ५. उत्तराध्ययनसुत्र६. उत्तराध्ययन सु,७. उत्तराध्ययन सुत्र ६/२, ८. उत्तराध्ययन सुत्र ६/२, ९. आवश्यक सुत्र, १०. दशवैकालिकसूत्र ५/१२५ किंतु जब असद्ज्ञान को सद्ज्ञान और सज्ञान को असद्ज्ञान मान पूजा करते है तब वे दुःख के दावानल की सृष्टि करते है। २१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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