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________________ कोई स्वामी है न कोई सेवक। समता-शासन में दीक्षित होने के पश्चात् राजा-प्रजा, स्वामी सेवक नहीं हो सकता। सबके साथ समता का व्यवहार करना चाहिए। १२ जो समभाव में रहता है वह लाभ-हानि, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में एक जैसा होता है। १३ वह इस लोक व परलोक में अनासक्त वसूले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है- हर्ष-विषाद नहीं करता। १४ मैत्री और सद्भाव भरा व्यवहार करना ही समता भाव है। जहाँ मैत्री व सद्भाव नहीं, वहाँ न समता है न शांति समता के आयाम चार माने जा सकते है(१) अहिंसा, (२) निर्भयता, (३) मैत्री, (४) सहनशीलता। जैनदर्शन अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा का मतलब है किसी जीव को किसी भी प्रकार का - शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, आर्थिक कष्ट न देना सबका कल्याण चाहना सबको आत्मवत् समझना अहिंसा है, तीर्थंकर महावीर ने 'सर्वजनहिताय' की बात कही थी, जबकि उनके समसामयिक गौतम बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' की बात कही थी। जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा पांच अणुव्रतों/महाव्रतों में सर्वोपरि है। उसके द्वारा सकल प्राणिजगत् की रक्षा की जा सकती है। महावीर ने सही कहा है - 'अहिंसा के घड़े में शुत्रुता का एक छेद नही रह सकता। वह पूर्ण निश्च्छिद्र होकर ही समत्व के जल को धारण कर सकता है।' भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे साथवाह का साथ आधारभूत है, उसी प्रकार अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिसा चरअचर सभी का कल्याण करने वाली है "एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं पिव गगणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं मिव असणं, समुद्दमज्झे वा पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपर्य, दृहठ्ठीयाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्ञ व सत्यगमणं, एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा जा सा पुढवि-जल अगणि-मारुय-वणस्सइ-बीज-हरित-जलचर-थलचर-खहंचर-तस-थावर-सव्वभेखेममकरो"१५ 'उत्तराध्ययनसुत्र' में कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त होकर साधक सब प्राणियों को आत्मवत् समझे और किसी की हिंसा न करे। 'आचारांग' के अनुसार आत्मीयता की भावना का आधार ही अहिंसा और मैत्री है। किसी उद्वेग, परिताप या दु:ख नहीं पहुँचाना चाहिए। अहिंसा शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जिसका प्रतिपादन तीर्थंकरों अर्हतों ने किया।१७ अहिंसा १२ जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। जे मोणपयं उवट्ठिए, नो लज्जे समयं समा चरे।। -सूत्रकृतांग-१/२/२/३. १३. समणसुत्तं - ३४७ १४. समणसुत्तं - ३४९ १५. प्रश्नव्याकरण, ६/२१ १६. उत्तराध्ययन, ६/६ १७. आचारांगसूत्र, १/४/२ २०६ मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संघ का सानिध्य तो परम् औषधि रुप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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