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________________ को नैतिकता के साथ-साथ रखना चाहिएं, यह दोनो पृथक पृथक नहीं है। व्यवहार में अहिंसा नैतिक आचरण की सीमा का संस्पर्श करती है। 'आचारांगसुत्र' में बहुत ही गहन और व्यापक जीवन-दर्शन अहिंसा, मैत्री के माध्यम से रेखांकित किया गया है, यह आत्मीयता का साकार रुप है "जिसे तु मारना चाहता है वह त ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे परिताप देना चाहता है वह तू ही है।" १८ यहीं से हम समाज में समानता और एकता का वातावरण बना सकते है। अहिंसा, मैत्री से बढकर समाज में समानता, एकता, सद्भाव, शांति और किसके द्वारा प्राप्त हो सकती है। उपनिषदों में सब भूतों को अपनी आत्मा में देखना या समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखने का सर्वात्मदर्शन व्यंजित है, वह अहिंसा का ही प्रतिपादन है, यहाँ किसी से घृणा का प्रश्न नहीं उठता यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुप्सुते॥ यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः ।। तत्र को मोह : क: शोक: एकात्वमनुपश्यतः ॥ महाभारत में अहिंसा, मैत्री, अभय का विस्तार से बार-बार प्रतिपादन किया गया है। भला जो सर्व भूतों को अभय देने वाला है वह दूसरों को कैसे मार सकता है। अभयदान या प्राणदान से बढकर संसार में और कोई दान नहीं हो सकता - "प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। न ह्यात्मान: प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्। १९ अहिंसा परम धर्म है, परम दम है, परम दान है, परम तप है। २० यही परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख है। २१ अहिंसा निर्बल, कायर या शक्तिहीन का काम नहीं, यह तो सबल व्यक्ति का अस्त्र है | शक्ति होने पर किसी को न सताया जाये, न बदला लिया जाये अपितु क्षमा कर दिया जाये, यही वीरता का लक्षण है, यही अहिंसा है, इसी को निर्भयता कहेंगे । जब कहते है कि मैं किसी से वैर नहीं रखता, कोई मुझ से वैर न रखे, सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ति मे सव्व भूएस, वेरं मज्झं न केणई॥ तब मनुष्य को सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए - 'मेतिं भूएसु कप्पए । २२ सामयिक का अर्थ है प्राणिमात्र को आत्मवत् समझना, समत्व का व्यहार करना । सामयिक वह व्यवहार है जिसके द्वारा हम समत्व को, समता भाव को अपने जीवन में उतारते है-"समस्य आय: समाय: स प्रयोजनम् यस्य तत्साममायिकम्।" हमारे अन्दर समता भाव आ जाये १८. आचारांगसूत्र, १/५/५ १९. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-१६ २०. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-२८ २१. महाभारत, अनु. पर्व ११६-२९ २२. उत्तराध्ययन ६/२ कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहां दृढ होती हैं, वहां मन में उत्साह की औट में नैराश्य आता ही नहीं हैं। २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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