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________________ - समता आतम धर्म है, तामस है पर धर्म अच्छा अपने आप में, रहन्त समझो मर्म ॥ समता में साता घणी, दुख विषमता माह । ममता तज समता भजो जो तिरने की चाह । समता-धर्म को आचरित करने पर ही जीवात्मा इस संसार सागर का संतरण कर सकता है। समता में सद्गति है, समता में सद्भाव है, समता में प्रेम-मैत्री है। इसके विपरीत विषमता या तामस में दुर्गति है, दुर्भावना है, द्वेष- घृणा है। समता सुधा है, अमृत है, राग अग्नि है। 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जब जीव अपनी आत्मा को आत्मा के द्वारा औदारिक, तैजस व कार्मण इन तीन शरीरों से तथा राग, द्वेष व मोह इन तीन दोषों से भी रहित जानता है तब उसका साम्यभाव में अवस्थान होता है ।४ क्रूर तथा उग्रवादी की क्रूरता, उग्रता समत्वयोगी के प्रभाव से शान्त हो जाती है- शाम्यन्ति जन्तवः क्रूर बद्धवैरा परस्परम्। अपि स्वार्थप्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभातः ॥ समता मोह, क्षोभ को शान्त करती है भगवती आराधना में मोह को हाथी कहा गया है- मोहमहावारणेन हन्यति ।७ जो व्यक्ति समता भाव में विचरण करता है। उसकी कथनी करनी समान होती है, उसका अन्तबा एक जैसा होता है उसी प्रकार दूसरे जीवधारियों को भी अपने प्राण प्रिय है भला हमें किसी के प्राण हरने का क्या अधिकार है जबकि हम उसे प्राण प्रदान नहीं कर सकते। यही समत्वदृष्टि है, आत्मौपम्यभाव है। 'गीता' में कहा गया है कि वही महान योगी है जो आत्मौपम्यभाव रखकर अपने सुख दुःख के समान ही, दूसरे के सुख-दुःख को समझता है ८ आसक्ति का परित्याग कर सिद्धि असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर कर्म करना समत्वभाव है।९ जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है, शुभ-अशुभ फल का त्याग करता है, वही व्यक्ति सच्चा भक्त है तथा ईश्वर को प्रिय है १० और जो व्यक्ति शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में समान रहता है, सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख के द्वन्द्व में भी सम रहता है, संसार में जिसकी आसक्ति नहीं होती, वह सचा भक्त है, वही परमपिता परमात्मा को प्रिय है ।११ समता का अर्थ समभाव है - न राग द्वेष, न ममत्व न आसक्ति । समता का अर्थ है एक नीचे न दूसरा उपर समत्व में जीना ही सचा जीना है। मन में समत्व का भाव है, किसी के प्रति वैरभाव नहीं आशा का त्याग कर समाधि समत्व को ग्रहण करना चाहिए तराजू के दो समान पलडे न समस्त प्राणियों के प्रति मेरे सम्मं मे सव्वभूदेस, वेरं मज्झं ण केण वि । आसाए वोसरित्ताणं, समाहि पडिवज्जए । (मूला, २ / ४२ ) शलाकापुरुष वीतरागी महावीर का कथन है कि तुम में न कोई राजा है न प्रजा, न ४. ज्ञानार्णव, २०/१६, ५. ज्ञानार्णव, २०/२०, ६. प्रवचनसार १/७, ७. भगवती आराधना, १३ / ९, ८. गीता ९. गीता-२, ४९, १०. गीता १२, १७, ११. गीता - १२.१८. Jain Education International सत्य कभी कड़वा नहीं होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नहीं होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते हैं। For Private & Personal Use Only २०५ www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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