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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - करता है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं' और 'सद्दहानो लभते पञ्जा' का ज्ञान और आचरण को सही दिशा - निर्देश दे सकता है। मध्ययुग शब्दसाम्य दोनों आचार-दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के जैन आचार्य भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं कि के लिए विशेष रूप से द्रष्टव्य है।२२ लेकिन यदि हम श्रद्धा को सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं।२७ आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम आध्यात्मिक संत आनन्दघनजी दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर। संयुक्त निकाय में बुद्ध कहते हैं हुए अनन्त जिन-स्तवन में कहते हैं - श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियंत्रण करती है।२३ शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, इस प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है। छार (राख) पर लीपणुं तेह जाणो रे बुद्ध कहते हैं 'श्रद्धा से ज्ञान बड़ा है।' २४ लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र की पूर्वापरता कर देते हैं। बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान-विहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेक जहाँ तक ज्ञान और चरित्र का संबंध है, जैन-विचारकों ने रूपी चक्ष को समाप्त कर उसे अंधा बना देती है और श्रद्धाविहीन चरित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। दशवैकालिक-सूत्र में । ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरुस्थल में भटका देता है। कहा गया है कि जो जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं इस मानवीय प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुद्धिमग्ग में जानता ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या कहा गया है कि बलवान श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञावाला धर्म (संयम) का आचरण करेगा?२८ उत्तराध्ययन-सूत्र में भी व्यक्ति बिना सोचे समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और यही बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण बलवान प्रज्ञा किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुतार्किक (धूर्त) नहीं होता।२९ इस प्रकार जैन-दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक् हो जाता है। वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही ज्ञान का होना आवश्यक है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते असाध्य होता है। २५ 'इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा और विवेक के मध्य हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है। यद्यपि एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ तक गीता का आचार्य अमतचन्द्र सरि ज्ञान की चरित्र से पूर्वता को सिद्ध करते प्रश्न है निश्चय ही उसमें ज्ञान की अपेक्षा श्रद्धा की ही प्राथमिकता हुए एक चरम सीमा का स्पर्श कर लेते हैं वे अपनी समयसार । सिद्ध होती है, क्योंकि गीता में श्रद्धेय को इतना समर्थ माना गया टीका में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है क्योंकि ज्ञान का है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की आभा को प्रकाशित ___ अभाव होने से अज्ञानियों में अंतरंग व्रत, नियम, सदाचरण और कर सकता है। तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि अज्ञान ही बंध का हेतु है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र का बहुत कुछ रूप में ज्ञान को प्रमुख मान लेते हैं। उनका यह पूर्वा पर सम्बन्ध - दृष्टिकोण जैन-दर्शन को शंकराचार्य के निकट खड़ा कर देता चरित्र और ज्ञान दर्शन के संबंध की पूर्वापरता को लेकर है। फिर भी यह मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का जैन-विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में चारित्र से साधन है जैन-विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन साधना-मार्ग में ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना के अभाव में सम्यक् चरित्र नहीं होता। भक्त-परिज्ञा में कहा पथ का उपदेश दिया गया है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का चरित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार जानकार हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।३१ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा संसार से मुक्त नहीं होता है। कदाचित् चरित्र से रहित सिद्ध भी गया है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को हो जाए लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता।२६ शरणभूत नहीं होता। दूराचरण में अनुरक्त अपने आपको पंडित वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही हैं। वे केवल वचनों से ही nirankarivariwarniwanidiromiditoriandiraniwari- ५९ daridrimarindiadroominatandaridrordiaritaram Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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