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________________ एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र का आधार है। राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म- जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थो में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है। यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार व्यवहार चारित्र -- व्यवहार चारित्र का संबंध हमारे मन, वचन और कर्म की शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है । सामान्यतया व्यवहार चारित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच समिति आदि का समावेश है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा । कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का यौगपद्य ( समानान्तरता ) स्वीकार किया है। आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । १६ इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गई है । तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान दिया है। १७ आचार्य कुन्दकुन्द दर्शन पाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्शनप्रधान है। १८ लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की प्राथमिकता भी देखने को मिलती है। उत्तराध्ययन सूत्र में उसी अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय ना अनुचित ही होगा । हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया जाए इसका निर्णय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं-१. यथार्थ दृष्टिकोण और २. श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं तो हमें साधनामार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही గొర Jain Education International For Private मिथ्या है, अयथार्थ है तो, न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र ही । यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हों तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते, वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है, ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और क्या उसका समाचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् ही स्थान देना चाहिए। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है ग्रन्थकार कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जानें और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। १९ व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है, वह स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा में नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है। जिन-प्रणीत तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवम् तार्किक परीक्षण के पश्चात् हो सकती है । यद्यपि साधनामार्ग के आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है " धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क के तत्त्व का विश्लेषण करें।"२० इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यक् दर्शन को ज्ञान पूर्व लेना चाहिए और श्रद्धापरक अर्थ में ज्ञान के पश्चात् । ५८ न केवल जैन-दर्शन में अपितु बौद्ध दर्शन और गीता में भी ज्ञान और श्रद्धा के संबंध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवम् आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उद्घोष किया हो, किन्तु बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान सभी युगों में मान्य रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति स्वयं बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है । २१ गीता में भी श्रद्धा या भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ हैं जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को स्थान दिया गया है। ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं। गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक यक्ष से कहते हैं निर्वाण की ओर ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुष प्रज्ञा को प्राप्त Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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