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________________ का आवश्यकताभर उपयोग करना परिग्रह परिमाण - व्रत है । ३३ इस व्रत के भी पाँच अतिचार बताए गए हैं, जिनसे श्रावक साधकों को बचना चाहिए । ३४ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार (क) क्षेत्रवस्तु - परिमाण अतिक्रमण तथा खेतों की मर्यादा को किसी भी बहाने से बढ़ाना । (ख) हिरण्य - सुवर्ण परिमाण अतिक्रमण आदि के परिमाण को भंग करना । (ग) धन-धान्य- परिमाण अतिक्रमण आदि की मर्यादा को भंग करना । मकानों, दुकानों - - - (घ) द्विपद-चतुष्पद-परिमाण अतिक्रमण दास-दासी, नौकर, कर्मचारी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना । (ङ) कुव्य - परिमाण अतिक्रमण दैनिक व्यवहार में आने वाली वस्त्र, पात्र, आसन आदि वस्तुओं के लिए परिमाण का उल्लंघन करना । Jain Education International सोने-चाँदी मुद्रा, जवाहरात - गुणव्रत - अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के लिए जैनाचार में गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। धर्मामृत (सागर) में इसके तीन भेद बताए गए हैं- दिग्व्रत, अनर्थदण्ड और भोगोपभोग परिमाणव्रत । ३५ १. दिग्वत जिस व्रत में उसके द्वारा दिशाओं की सीमा निर्धारित की जाती है, उसे दिग्व्रत कहते हैं । २६ अनंत इच्छाओं की त्यागवृत्ति के द्वारा मर्यादा निश्चित करना दिग्व्रत है। इसलिए इसे दिशापरिमाण के नाम से भी जाना जाता है। इसके भी पाँच अतिचार हैं (क) उर्ध्वदिशा - परिमाण अतिक्रमण - ऊँची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम उर्ध्वदिशा परिमाण अतिक्रमण है। (ख) अधोदिशा परिमाण अतिक्रमण - नीचे की दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाला दोष अधोदिशा परिमाण अतिक्रमण - कहलाता है। (ग) तिर्यक दिशा-परिमाण अतिक्रमण - उत्तर-दक्षिण, पूर्वपश्चिम तथा उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा के उल्लंघन से लगने वाला दोष तिर्यक्परिमाणअतिक्रमण कहलाता (घ) क्षेत्रवृद्धि - मनमाने ढंग से क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। (ङ) स्मृत्यन्तर्धा - सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाला दोष स्मृत्यन्तर्धा अतिचार कहलाता है। २. अनर्थदण्डव्रत - बिना किसी प्रयोजन के हिंसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है और हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है। इस व्रत में पापपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैसे -- (क) अपध्यान - आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग, क्योंकि इससे श्रावक के अंदर अशुभ चिन्तन की क्रिया होती रहती है। (ख) प्रमादाचरण आलस्य का सेवन करना प्रमादाचरण है। प्रमादाचरण वाले व्यक्ति की शुभ में प्रवृत्ति नहीं होती, यदि होती भी है, तो असावधानी पूर्वक करता है। ( ग ) हिंसादान - व्यक्ति अथवा राष्ट्र को हिंसक शस्त्र आदि देकर हिंसा की संभावना को बढ़ावा देना भी अनर्थदण्ड है। (घ) पापकर्मोपदेश - जिस उपदेश के सुनने से व्यक्ति पाप कर्म में प्रवृत्त हो, वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है। - अहिंसादि व्रतों के सम्यक् पालन के लिए तथा आत्मविशुद्धि के लिए अनर्थदण्ड का त्याग करना चाहिए। यह त्यागरूपव्रत ही अनर्थदण्ड व्रत है। इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं. (क) संयुक्ताधिकरण - जिन उपकरणों के संयोग से हिंसा की संभावना बढ़ जाती है, उन्हें संयुक्त रखना संयुक्ताधिकरण अतिचार कहलाता है। (ख) उपभोग परिभोगातिरिक्त उपभोग एवं परिभोग की उपभोगपरिभोगातिरिक्त अतिचार है। आवश्यकता से अधिक सामग्री संग्रह रखना For Private Personal Use Only - (ग) मौखर्य - असम्बद्ध एवं अनावश्यक वचन बोलना मौखर्य है। (घ) कौत्कुच्य - विकारवर्धक चेष्टाएँ करना या देखना कौत्कुच्य है। ४0 Jo www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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