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________________ --यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचार(ङ) कन्दर्प - विकारवर्धक वचन बोलना या सुनना कंदर्प है। (ग) शरीर से सावध क्रिया करना। ३. भोगोपभोग परिमाण व्रत - एक बार भोगने योग्य (घ) सामायिक के प्रति अनादर भाव रखना। आहार आदि भोग कहलाते हैं और जिन्हें बार-बार भोगा जा । (ङ) समय पूरा किए बिना ही सामायिक पूरी कर लेना। सके, ऐसे सब वस्त्र, पात्र आदि परिभोग या उपभोग कहलाते २. प्रोषधोपवास - आत्म चिन्तन के निमित्त सर्व सावद्य हैं। इन पदार्थों को काम में लाने की मर्यादा बांध लेना उपभोगपरिभोग परिमाण है। इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं३९ क्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान में बैठकर उपवासपूर्वक . समय व्यतीत करना प्रोषधोपवास है। योगशास्त्र में कहा गया है (क) सचित्ताहार - जो वस्तु मर्यादा के बाहर है, उसे आहार कि कषायों को त्यागकर प्रत्येक चतुदर्शी एवं अष्टमी के दिन रूप में ग्रहण करना सचित्ताहार अतिचार है। उपवास करके तप, ब्रह्मचर्यादि धारण करना प्रोषधोपवास (ख) सचित्तप्रतिबद्धाहार - सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् कहलाता है।४२ इस व्रत के भी पाँच दोष हैं, जिनसे साधकों को लगी हुई उचित वस्तु का आहार करने पर सचित्त प्रतिबद्धाहार बचना चाहिए।४३ दोष लगता है। (क) अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक - (ग) अपक्वाहार - बिना अग्नि के पके आहार का सेवन बिना देखे हुए शय्या आदि का उपयोग करना। करने पर अपक्वाहार दोष लगता है। (ख) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक - अप्रमार्जित (घ) दुष्पक्वाहार - अनेक द्रव्यों से संयोग से निर्मित सुरा, शय्यादि का प्रयोग करना। मदिरा आदि का सेवन करने अथवा दुष्ट रूप से पके पदार्थों को (ग) अपतिलेखित-टपतिलेखित उच्चारप्रस्त्र वण भमिग्रहण करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है। ठीक-ठीक बिना देखे हुए शौच या लघुशंका के स्थानों का (ङ) तुच्छोषधिभक्षण - जो वस्तु खाने के काम में कम आए उपयोग करना। और फैंकने में अधिक जाए, ऐसी वस्तु का सेवन करने पर (घ) अप्रमार्जित-दष्प्रमार्जित उच्चारप्रसा मण भमि - तुच्छोषधिभक्षण दोष लगता है। अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। शिक्षाव्रत - जैनाचार्यों के अनुसार शिक्षा का अर्थ अभ्यास (ङ) प्रोषधोपवास-सम्यगननुपालनता- शय्या प्रोषधापवास गोवार होता है। अतः कहा जा सकता है कि जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः । का सम्यक् रूप से पालन नहीं करना यानी प्रोषध में निंदा, पन: विद्या का अभ्यास करता है, ठीक उसी प्रकार श्रावक को विकषा. प्रमादादि का सेवन करना। कुछ व्रतों का बार-बार अभ्यास करना पड़ता है। बार-बार यही ३. देशावकाशिक व्रत - देश यानी क्षेत्र का एक अंश अभ्यास शिक्षाव्रत कहलाता है। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किया जाता है और शिक्षाव्रत कुछ समय के और अवकाश अर्थात् स्थान दिशा परिमाण व्रत जीवनभर के लिए। शिक्षाव्रत के मुख्यत: चार भेद हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास, __ लिए मर्यादित दिशाओं के दिन एवं रात्रि में यथोचित कुछ घंटों देशावकाशिक और अतिथि संविभाग। या दिनों के लिए संक्षेपण करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है।४ इनके भी पाँच अतिचार हैं - १. सामायिक - सामायिक अर्थात् समत्व का अभ्यास। (क) आनयन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या सामायिक आत्मा का वह भाव अथवा शरीर की वह क्रिया विशेष है, जिसमें मनुष्य को सम्मान की प्राप्ति होती है। इसके । मँगवाना। भी पाँच अतिचार हैं, जिनसे सामायिक व्रत दूषित होते हैं। १ ।। (ख) प्रेष्य प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या ले (क)मन से सावध भावों का चिन्तन करना। जाना। (ख)वाणी से सावध वचन बोलना। (ग) शब्दानुपात - निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को खड़ा rinaridroid-dardarodaradardarbrobrarianda-[ ४ १ dividminiororandaridroiviondardwaniindiarda Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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