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________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - के अंतर्गत आता है। (ङ) तत्प्रतिरूपक व्यवहार - वस्तुओं में मिलावट करना (ख) रहस्य-आख्यान - किसी की गोपनीय बात को तत्प्रतिरूपक व्यवहार है। किसी अन्य के सामने प्रकट कर देना रहस्य-आख्यान कहलाता ४. स्वदार-संतोष - अपनी पत्नी के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ मैथुन-सेवन का मन, वचन व कायपूर्वक त्याग (ग) स्वदार अथवा स्वपतिमंत्रभेद - पति-पत्नी की करना स्वदार-संतोष व्रत कहलाता है। उपासकदशांग में वर्णन गुप्त बातों को किसी के सामने प्रकट कर देना स्वदार या। आया है कि मैं स्वपत्नी-संतोषव्रत ग्रहण करता हूँ, पत्नी के स्वपतिमंत्रभेद कहलाता है। अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।३१ अन्य व्रतों की भाँति स्वदार-संतोष के भी पाँच अतिचार बतलाए गए हैं, जिनसे (घ) मृषा-उपदेश - किसी भी व्यक्ति को सच-झूठ श्रावक को बचना चाहिए।३२ समझाकर कुमार्ग की ओर प्रेरित करना मृषा-उपदेश है। (क) इत्वरिक-परिगृहीता-गमन - इत्वरिक का अर्थ होता (C) कट-लेखकरण - झूठे लेख लिखना, झूठे - अल्पकाल. परिग्रहण का अर्थ होता है - स्वीकार करना, दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना, झूठे सिक्के गमन का अर्थ होता है - काम-भोग-सेवन अर्थात् अल्पकाल तैयार करना आदि कूट-लेखकरण अतिचार कहलाता के लिए स्वीकार की गई स्त्री के साथ काम-भोग का सेवन ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण - अदत्तादान का अर्थ ही होता करना। श्रावक के लिए ऐसे मैथुन का निषेध किया गया है। है बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण (आदान)। श्रावक के लिए ऐसी (ख) अपरिगृहीतागमन - वह स्त्री, जिस पर किसी प्रकार चोरी का त्याग अनिवार्य है, जिसके करने से राजदण्ड भोगना का अधिकार न हो, अर्थात् वेश्या, कुलटा, वियोगिनी आदि का पड़े, समाज में अविश्वास उत्पन्न हो, प्रामाणिकता नष्ट हो, प्रतिष्ठा उपभोग करना आदि अपरिगृहीता-गमन कहलाता है। को धक्का लगे। इस प्रकार की चोरी का त्याग ही जैन आचार शास्त्र में स्थल अदत्तादान-विरमण व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। (ग) अनंगक्रीड़ा - प्राकृतिक रूप से कामवासनाओं की पर्ति न योगशास्त्र में कहा गया है कि बना किसी की आज्ञा के किसी करक अप्राकृतिक रूप करके अप्राकृतिक रूप से वासना की पूर्ति करना अनंगक्रीडा वस्तु को ले लेने पर मन में अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, दिन कहलाता है, यथा - हस्तमैथुन, समलैंगिक मैथुन, कृत्रिम साधनों रात, सोते-जागते, चौर्यकर्म की चुभन होती रहती है।३० उपासक द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि। -दशांग में निम्नलिखित पाँच अतिचारों से बचने का निर्देश दिया (घ) परविवाहकरण - कन्यादान में पुण्य समझकर अथवा गया है - रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़के, लडकियाँ ढूँढना, उनकी (क) स्तेनाहत - चोरी की वस्तु खरीदना या बेचना स्तेनाहत शादियाँ कराना आदि कर्म परविवाहकरण अतिचार है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ साधक को स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह-संबंध कराने का निषेध है। (ख) तस्कर-प्रयोग - चोरी करने की प्रेरणा देना, चोर को सहायता देना, तस्कर को शरण देना आदि तस्कर प्रयोग कहलाता (ङ) कामभोग-तीव्राभिलाषा - कामरूप एवं भोगरूप विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक आकांक्षा करना कामभोग तीव्राभिलाषा अतिचार है। (ग) राज्यादिविरुद्ध कर्म - राजकीय नियमों का उल्लंघन करना राज्यादिविरुद्ध कर्म कहलाते हैं। ५.इच्छा-परिमाण- इच्छाएँ अनंत होती हैं। इन अनंत इच्छाओं की मर्यादा निर्धारित करना या नियंत्रित करना ही इच्छा-परिमाण (घ) कटतौल-कटमान - वस्तु के लेन-देन में न्यून या है। अर्थात गहस्थ को परिग्रहासक्ति से बचने के लिए परिग्रह की अधिक का प्रयोग करना कूटतौल-कूटमान कहलाता है। सीमा-रेखा निश्चित की गई है। धन-धान्यादि के संग्रह से ममत्व घटाना अथवा लोभ-कषाय को कम करके संतोषपूर्वक वस्तुओं రురురురురురురురతరతరతరం రంగురంగురంగురువారూరురురువారం Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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