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________________ झाबरमल्ल शर्मा [ २३ थे। बातों ही बातों में वे श्री मुनिजी से पूछ बैठे-"क्या आप जर्मनी की नेशनल लाइब्रेरी के लिए यह अद्वितीय और अमूल्य प्रति दे सकते हैं ? और बड़े संकोच के साथ इसका मूल्य कम से कम एक लाख मार्क प्रांका । उत्तर में मुनिजी ने उनका धन्यवाद करते हुए स्पष्ट कह दिया कि "जिस प्रकार आप इस प्रति को अद्वितीय और अमूल्य समझते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपने मन में इसको अपने देश की एक अमूल्य निधि मानता है और प्राणों से भी अधिक इसकी रक्षा करना चाहता हूँ; यह एक दुर्भाग्य की बात है कि मेरे देश के लोगों को ऐसी राष्ट्रीय अमूल्य निधि का परिज्ञान नहीं हैं और वे इसका महत्व नहीं प्रांक सकते । मैं किसी मूल्य पर भी इससे वियुक्त होने के लिए तैयार नहीं हूँ।" अन्त में इस संदर्भ में यह बात तय हुई कि, इस प्रति का प्रकाशन मुनिजी के सम्पादकत्व में बलिन विश्वविद्यालय से किया जाय और उसकी समीक्षात्मक तालिका आदि डॉ० ल्यूडर्स तैयार करें । प्रति की फोटो-प्रतियां तैयार कराई गई और दोनों विद्वान अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गए । मूल प्रति की बहुत कुछ प्रेसकापी भी तैयार हो गई । परन्तु उसी समय मुनिजी जर्मनी से लौटकर भारत आये और अहमदाबाद में गांधीजी से मिले । उनको अपनी प्रवृत्तियों का परिचय दिया । दो तीन मास ठहर कर-जर्मनी लौट जाने का संकल्प भी बताया। उसी समय महात्माजी ने स्वाधीनता संग्राम के सिलसिले में डाँडी-कूच का बिगुल वजा दिया-सत्याग्रह के पहले जत्थे का नेतृत्व स्वयं महात्माजी ने किया-उनके बाद दूसरे जत्थे का नेतृत्व ग्रहण कर मुनिजी भी जेल चले गए। जर्मनी जाने की योजना जहां की तहां रही। दूसरी रोचक घटना चित्तौड़ में भामाशाह भारती भवन के निर्माण की है। श्रीमुनिजी को यह प्रेरणा तब हुई जब चीन का भारत पर अाक्रमण हुआ और सरकार भामाशाह का उदाहरण याद दिलाकर सोना एकत्र करने लगी। मुनिजी ने कहा-'भामाशाह का नाम लेकर इस प्रकार धन तो एकत्र किया जाता है किन्तु उस त्यागी देशभक्त का नाम कोई माचिस की पेटी या बीड़ी के बंडल पर भी अंकित नहीं करता। इसी भावना से उन्होंने इस भवन का निर्माण कराया जिसमें आजकल राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान का शाखा कार्यालय और एक बाल-मन्दिर चलता है। उसमें मुनिजी ने लगभग ५० हजार रुपये व्यय किए हैं। १४४० ग्रन्थों के निर्माता प्रकाण्ड विद्वान हरिभद्रसूरि की स्मृति में हरिभद्रसूरि-स्मारक-मन्दिर बनवाया है । इसमें हरिभद्रसूरि एवं अन्य महात्मानों की सुन्दर संगमरमर की मूर्तियां जयपुर के कारीगरों से बनवाकर स्थापित की गई हैं । इस मन्दिर की लागत लगभग सवा लाख रुपये है। स्पृहणीयाः कस्य न ते सुमते सरलाशया महात्मानः त्रयमयि येषां सदृशं हृदयं वचनं तथा s चारः । -सुभाषित ऐसे सरलाशय महात्मा सबके स्पृहरणीय एवं वन्दनीय हैं. जिनके तीनों-हृदय, वचन और प्राचार एक समान सदृश होते हैं, कोई बाह्याडम्बर नहीं होता । बाह्याभ्यंतर शुचिता-सम्पन्न विद्वद्वरेण्य श्री मुनि जिन विजय जी महाराज इसी कोटि के महत् पुरुषों में परिगणनीय हैं। सही अर्थ में, श्री मुनि जी वाणी-सरस्वती के वर-पुत्र हैं। . मुनि जी ने सर्वदेवायतन मन्दिर का दर्शन हमें स्वयं कराया। मंदिर में भगवान् शंकर-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण-रुक्मिणी, जिन देव, बुद्ध, महावीर, गणेश, हनुमान, और शीतलामाता, लक्ष्मी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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