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________________ वास्तव में वे देवकल्प हैं "इन दिनों श्री मुनिजी की शारीरिक स्थिति क्षीण हो चली है और वे श्री बहराजीको और आपको याद करते हैं।" यह सन्देशा मेरे आयुष्मान गोकुलप्रसाद शर्मा ने नाथद्वारा से जयपुर पहुँच कर दिया। श्री पं० गोपाल नारायण जी बहुरा महोदय को अवगत किया गया। श्री बहुराजी को राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में उप-निदेशक पद पर १७ वर्ष तक मुनि जी के साथ कार्यनिरत रहने का सौभाग्य प्राप्त है। मुझ पर भी उनकी अहेतुकी कृपा है । , सन् १९५७ से १६६३ ई० तक श्री गोकुलप्रसाद चित्तौड़गढ़-उप-जिलाधीश रहे । उन दिनों समयसमय पर मुझे भी मुनि जी के दर्शन का सुयोग मिलता रहा। मुनि जी इस समय स्मरण कर रहे हैं--यह सुनते ही हम लोग उनके दर्शनार्थ प्रस्तुत हो गये और ६ जनवरी को बड़े सवेरे श्री गोकुलप्रसाद के साथ ही रवाना होकर उसी दिन नाथद्वारा जा पहुँचे । श्रीनाथजी के दर्शन कर वहां के स्थान देखे और अगले दिन चित्तौड़ पहंचने के लिये बस का सहारा लिया । बस १२।। बजे चित्तौड़ के समीप उस मोड़ पर पहुँची जहा से चन्देरिया को सीधी सड़क जाती है। यहाँ से हम पदयात्री बने और अढाई मील पैदल चलकर श्री मुनिजी की सेवा में उपस्थित हये । जिस समय हम श्री मुनि जी के आश्रम में पहुँचे वे अपने कमरे में जंगले के सहारे चौके पर विराजमान थे। हमने उनके समक्ष पहुँच कर स्वनामोच्चारपूर्वक प्रणाम निवेदन किया और वे प्रेम से गद्गद् होकर खड़े हो गये और हमारा अभिवादन स्वीकार किया। कैसे पाये ? उन्होंने पूछा । उनका मतलब सवारी से था । हमने बताया 'चित्तौड़ के मोड़ से पैदल आये हैं। प्राय तीर्थस्वरूप हैं और तीर्थयात्रा पदयात्रा बिना सफल नहीं होती।' वे मुसकराये। हमने श्री गोकुलप्रसाद द्वारा दोनों को स्मरण करने की बात कही--तो उन्होंने कहा- 'गोकुलप्रसाद जी तो हमारे सहायक स्तम्भ हैं । वे उस दिन अचानक पाये थे और तभी मैंने उनसे आप लोगों का जिकर किया था।' इसके बाद उन्होंने श्री वहुरा जी से प्रात्मीयता पूर्वक उनके परिवार की कुशल-क्षेम पूछी । इसके बाद हमने उनके जीवन की अनेक घटनाओं के विषय में प्रश्न किये जिनका उन्होंने सरल भाव से उत्तर दिया। इस प्रसंग में मुनिजी की जर्मनी की यात्रा की एक घटना चिरस्मरणीय रहेगी। जर्मनी जाते समय आप अपने जर्मन विद्वान मित्रों को प्रत्यक्ष दर्शन कराने के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र की १२ वीं शताब्दी की हस्तलिखित अद्वितीय किन्तु अल्प एवं श्रुटित प्रति साथ ले जाना नहीं भूले जिसकी चर्चा वे उनसे कर चुके थे और जिसका कड़ी खोज के बाद उन्होंने स्वयं पता लगाया था। देवनागराक्षरों में इस ग्रन्थ की उत्तर भारत की अब तक वही एक मात्र उपलब्धि है । जब इसका मुनिजी ने दर्शन कराया तो डॉ० हरमन याकोबी और ल्यूडर्स-दोनों ही बड़े पानन्दित हुए। डॉ० ल्यूडर्स बलिन विश्वविद्यालय में इण्डोलॉजिकल स्टडीज के अध्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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