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________________ प्रेमलता शर्मा २७७ ] केवल नामोल्लेख ही ग्रन्थों में रह पाया और या उसका भी लोप हो गया । 'बृहद्दशी' के परवर्ती ग्रन्थों को मार्ग-देशी-विभाजन की दृष्टि से निम्नलिखित चार श्रेणियों में रखा जा सकता है। १. मार्ग और देशी विभाजन का स्पष्ट उल्लेख एवं पूर्ण निर्वाह करने वाले ग्रन्थ इस श्रेणी के अन्तर्गत ग्रन्थों में गीत, वाद्य और नृत्य । संगीत के इन तीनों अगों का मार्ग और देशी के रूप में द्विविध विभाजन किया गया है। गीत के प्रसंग में राग का ग्रामराग और देशीराग के रूप में एवं गीत प्रबन्ध का शूद्ध गीतक और (देशी) प्रबन्ध के रूप में द्विधा विभाजन हुअा है । वाद्य के प्रसंग में मार्ग और देशी का विभाजन कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है, इसका कारण यही हो सकता है कि भारतीय परम्परा में वाद्य गीत का अनुवर्ती-मात्र है, इसलिये गीत के प्रसंग में रागों का जो द्विधा विभाजन हुआ है, वही तत और सुषिर वाद्यों को भी अविकल रूप से लागू हो जाता है । ताल प्रकरण में मार्ग-ताल और देशी-ताल ऐसा विभाजन किया गया है । इसका सम्बन्ध परोक्ष रूप से घन और अवनद्ध वाद्यों के साथ समझा जा सकता है। जहां तक वाद्य यन्त्रों का सम्बन्ध है, ऐसा कोई निर्देश कहीं नहीं मिलता कि अमुक वाद्य मार्ग संगीत के उपयोगी है और अमुक देशी संगीत के । वास्तव में ऐसा निर्देश आवश्यक भी नहीं है। केवल मार्गपटह और देशीपटह इस प्रकार पटह (अवनद्ध वाद्य विशेष) के दो सविशेषण भेद कहे गये हैं। (दृष्टव्य संगातरत्नाकर वाद्याध्याय, श्लोक ८०५) । नृत्य के प्रकरण में मार्ग नृत्य और देशी नृत्य यह दो भेद स्वीकृत हैं। प्रस्तुत श्रेणी के अन्तर्गत निम्नलिखित ग्रन्थों के नाम प्रमुख हैं। (१) नान्यदेव का भरतभाष्य (१२ वीं शती ई०) इसका प्रारम्भिक ग्रंश ही अभी प्रकाशित हुआ है। पूरे ग्रन्थ की पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं है। जो कुछ उपलब्ध है, उसमें देशी रागों का पृथक निरूपरण नहीं है, मार्ग रागों की भाषाओं के साथ-साथ ही कुछ ऐसे रागों का वर्णन मिलता है जो अन्य ग्रन्थों में देशी कहे गये हैं। देशी तालों का वर्णन भी नहीं मिलता। केवल देशी प्रबन्धों का साङ्गोपाङ्ग निरूपण मिलता है। नृत्य प्रकरण इसमें है ही नहीं। (२) शाङ्ग देव का संगीत रत्नाकर' (१३ वीं शती ई०) इसमें राग, ताल, प्रबन्ध और नृत्यसभी प्रकरणों में मार्ग देशी का विभाजन प्राप्त है। (३) पण्डितमण्डली का 'संगीत शिरोमणि' (१५वीं शती ई०)-यह ग्रन्थ अप्रकाशित है और पाण्डुलिपियाँ बहुत ही खण्डित हैं । (४) राणा कुम्भकर्ण (कुम्भा) का 'संगीतराज' (१५वीं शती० ई.)-इसमें विषय प्रतिपादन संगीतरत्नाकर की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है, अतः मार्ग-देशी का ऊपर लिखे सभी प्रकरणों में विभाजन अधिकतर स्पष्ट है। २. मार्ग और देशी के विभाजन का अपूर्ण निर्वाह करने वाले ग्रन्य (१) श्रीकण्ठ की 'रसकौमुदी' (१६वीं शती) केवल ताल प्रकरण में यह विभाजन स्पष्ट मिलता है। (२) रघुनाथ भूप की 'संगीतसुधा' (१७वीं शती) केवल राग-प्रकरण में ग्राम-रागों और देशी रगों का परम्परागत निरूपण मिलता है। ताल प्रकरण की प्रतिज्ञा में तो मार्ग देशी का स्पष्ट उल्लेख है, पर वह अध्याय उपलब्ध नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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