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________________ भारतीय संगीतशास्त्र में मार्ग और देशी का विभाजन भारतीय संगीतशास्त्र के अध्येता के सम्मुख मार्ग और देशी-संगीत का यह द्विविध विभाजन, अध्ययन के प्रवेशद्वार पर ही उपस्थित हो जाता है। किन्तु आजकल संगीतशास्त्र का अध्ययन जिस रीति से, जिस चित्तवृत्ति से हो रहा है, तदनुसार इस विभाजन को कुछ भी महत्व नहीं दिया जाता और इसे अतीत का अनुपयोगी अवशेष मात्र मान कर इसकी उपेक्षा कर दी जाती है, 'लक्षण' में जो स्थिति है, वही 'लक्ष्य' में भी है, वहाँ भी आज इस विभाजन का कोई स्थान नहीं समझा जाता। किन्तु वास्तव में यह विभाजन हमारे संगीतशास्त्र में मौलिक महत्व रखता है। इस विभाजन के मर्म को समझे बिना यह कहते रहना कि भारतीय संगीत आध्यात्मिक साधना का सशक्त अङ्ग है, कोरा अर्थवाद बन कर रह जाता . है और उससे सत्य दर्शन के स्थान पर भ्रमजाल को ही पोषण मिलता है। 'मार्ग' शब्द मृग् धातु से बना है, जिसका अर्थ है अन्वेषण (मृग मार्गणे) । 'देशी' शब्द की । निष्पत्ति दिश् धातु से है जिसका अर्थ है देना या बाहर फेंकना ( दिश अतिसर्जने) । मार्ग में अन्वेषण का अर्थ स्पष्ट है, किन्तु वह अन्वेषण किस का ? इस प्रश्न पर हम कुछ आगे चल कर विचार करेंगे । इतना तो आपाततः स्पष्ट है कि अन्वेषण 'भूमा' का ही अभिप्रेत हो सकता है, 'अल्प' का नहीं । देशी में भीतर से बाहर अतिसर्जन करने का भाव है इसलिये इसमें जन रंजन का प्रयोजन अन्तर्निहित है 'देश' से 'देशी' का सम्बन्ध जोड़ा जाय तो उस में खण्डबोध का अर्थ अनुस्यूत मानना होगा। इन दोनों शब्दों का संगीतशास्त्र में क्या स्थान है, यही प्रस्तुत प्रबन्ध में पालोच्य है। भारतीय संगीत का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र में मिलता है, किन्तु वहाँ संगीत का मार्ग और देशी यह द्विविध विभाजन कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं मिलता, यद्यपि हम कुछ आगे चल कर देखेंगे कि इस विभाजन का बीज सूक्ष्म रूप से नाट्याशास्त्र में अवश्य प्राप्त है । इस विभाजन का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख मतंग के बृहद्दशी में मिलता है। इस ग्रन्थ के नाम में ही 'देशी' पद है, इसलिये ऐसा समझा जा सकता है कि इस ग्रन्थ के रचना-काल (१००-६०० ई. के मध्य) तक मार्ग और देशी का विभाजन बहत स्पष्ट रूप से स्वीकृत हो चुका होगा, और इसमें देशी के निरूपण के प्रति अधिक अभि निवेश रहा होगा । संपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध न होने से और उपलब्धांश का पाठ बहुत खंडित होने से उक्त अनुमान की पूर्ण पुष्टि करना तो संभव नहीं है, किन्तु ग्रन्थ के प्रारंभ में ही देशी और मार्ग का जो उल्लेख मिलता है, वह अवश्य ही सूचक है। ___'बृहद्देशी' के बाद प्राय : १५ वीं शताब्दी तक यह विभाजन संगीतशास्त्र के सभी प्रमुख ग्रन्थों में मौलिक स्थान पाता रहा । किन्तु १५ वीं शताब्दी के बाद इसका महत्व घटने लगा, या तो इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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