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________________ डॉ० हरीश १०२ रात भर तड़पाया, उसके नेत्रों में संपूर्ण रात्रि को ही समा जाने दिया, अभिसार कराए, रति प्रवोरणा बनाने के लिए दूती शिक्षा दिलवाई, सौंदर्य में प्राकंठ निमग्न होकर काव्य लिखा, संयोग श्रृंगार के मार्मिक चित्र उरेहे, संयोग में डूब डूब कर गाया और गा गा कर डूबे तथा विलास की मामग्री प्रस्तुत की, तो उनका क्या "दोष था ? भले ही आलोचक उनके अंतर्जगत के वर्णन को हृदयग्राही न कहे, पर उनकी वर्णन विदग्धता तो निभ्रति है । P राज दरबार से प्रभावित एवं राज्याधित होने के कारण भी उन्होंने अपने प्राश्रयदाता के लिए श्रृंगार लिखा और राधा-कृष्ण के संयोग के खुल कर वर्णन किए। केवल अभिव्यक्ति के ऊपरी मूल्यांकन से व्यक्तित्व का इतना सस्ता निबटारा कैसे किया जा सकता है ? आज के प्रगतिवादी कवि भले महलों में बैठकर झोपड़ी की कल्पना में साहित्य रचना करें और उनके व्यक्तित्व पर फिर भी कोई लांखन न हो । आज के प्रयोगवादी कवि प्रति यथार्थ को काव्य का विषय बनाकर सरेलिजम में अत्यन्त भद्दे और नंगे वर्णन करें और फिर भी श्रेष्ठ कवियों के खिताब पाये । समाज में विकृत ग्रह और काम विकृति "परवड सैक्स" के दूषित वर्णन को काव्य का जामा पहनायें और उस पर मनोविज्ञान सम्मत होने की दुहाई दें, तो वे साहित्यकार क्षम्य हैं । आज का ६० प्रतिशत साहित्य अपनी हर विद्या में समाज के सामने विक्ट सैक्स के अनेक नगे व खुले चित्र उतारे और उसे सरकार विविध उपाधियों तथा पुरस्कारों से सम्मानित करे, यह कैसी विप्रतिपति है। पर यह सब आज क्षम्य है क्योंकि उनके पास सृजन का लाइसेंस है और विद्वान थालोचक उसे यथार्थ और जीवन का वास्तविक चित्रण कहकर पचा रहे हैं। यदि मानसिक कुंठाओं और ग्रंथियों से पीड़ित साहित्य का भी जब सत्साहित्य के नाम पर स्वागत हो रहा है तब आलोचना के सभी प्राचीन मानदण्ड उनके लिए किस खेत की मूली है। उनका चिन्तन, कान्टेंट, फार्म, अनुभूति और सौंदर्यबोध उनका अपना एवं मौलिक है। उन्हें पुराना लिला सब बेहद कुरूप और ब्राउट डैटेड लगता है तो क्या कीजिएगा ? यों भी उन्हें श्राप कुछ भी कह लीजिए । अपने व्यक्तित्व निर्माण का भी उन्हें कोई डर नहीं कालान्तर में उनका मूल्यांकन का साहित्यकार तो ग्रांख खोलकर जो देख रहा है उसे पवाता है और यह सब हमें सहज स्वीकार्य है 'के साथ मुक्ता रत्न भी तो पड़े रहते हैं। "प्राउट डेटेड" कान्टेंट और फार्म के लिए है । i कैसा भी हो, उसकी उन्हें क्या भीति ? मात्र चला जा रहा है, उगलता चला जा रहा यो भी साहित्य देवता का पेट तो समुद्र है उसमें सीपी सेवार बस झालोचना की तेजधार वाली तलवार तो प्राचीन कवियों के 1 इस प्रकार हम एक बार फिर अपनी इस बात को दुहराना चाहेंगे कि प्रत्येक कवि को समझने के लिए हमें उसके समय, जीवन दर्शन और मूलभूत परिस्थितियों की ओर से आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए । उनका उसके कर्तृत्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । विद्यापति भक्त कवि थे और वैष्णव सगुण सहजिया भक्त थे और उनकी साधना शृंगारमयी थी । एक बात और कहना चाहते हैं कि हमारे भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों के मूल ग्रन्थ क्या एक स्वर से यह कहते हैं कि ब्रह्म को प्राप्त करने का केवल एक ही साधनात्मक रास्ता है ? और यदि ऐसा है तो फिर कबीर ने स्वयं को "राम की बटुरिया" सूर ने कृष्ण का सखा, तुलसी ने राम का दास और मीरा ने कृष्ण को पति कहकर साधना क्यों की? आधुनिक रहस्यवादी उसे अव्यक्त ब्रह्म बनाकर प्राप्त करना चाहते हैं । तो फिर विद्यापति को क्या यह अधिकार नहीं था कि वे इस साधना को श्रृंगार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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