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________________ विद्यापति : एक भक्त कवि १०१ धारा की भक्ति में प्राकंठ कामवासना ही कार्य कर सगुण वैष्णव सहजयान के भक्त कवि मनुष्य को ही देवता मानते हैं अन्य किसी को नहीं । उनकी धारणा है कि मनुष्य ही स्वयं कृष्ण का रूप है और उसे मानवीय लीलाओं के स्तर पर वर्णन करने में कोई संकोच अनुभव नहीं हो सकता । प्रतः इस धारा के अनुगामी जितने भी कवि हैं, वे सब कठोर साधक एवं भक्त हैं तथा उनके लिए काया साधना का असाधारण महत्व है। यही कारण है कि विद्यापति ने पूर्ण भक्त होते हुए भी पदावली में इस प्रकार की रचना की । ऐसे पदों के सृजन से इस सम्प्रदाय के कवियों के रचना-शिल्प एवं व्यक्तित्व पर किसी भी प्रकार की कोई ग्रांच सामान्यतः नहीं ही पानी चाहिए। चन्डीदास यदि स्वयं रामा धोबिन से कहते थे कि 'हे देवी तुम मेरे लिए रहस्योद्घाटिनी हो, तुम मुझ शिव के लिए शक्ति के समान हो । तुम्हारा शरीर राधा का शरीर है।' तो क्या इन भावनाओं को मात्र कामवासना प्रधान ही कहा जायगा ? और विद्यापति ने यदि इस निमग्न होकर नायिका के पथ में काव्य के गुलाब विद्याये तो क्या उनमें विशुद्ध रही थी ? बस सोचने में हम यहीं गलती कर बैठते हैं और विद्यापति की श्रृंगारिक रचनाओं को लेकर यह ऊहापोह खड़ा करने लगते हैं कि वे घोर श्रृंगारिक कवि थे । वास्तव में विद्यापति जिस सगुण सहजिया सम्प्रदाय के थे उसकी भक्ति सम्बन्धी अभिव्यक्ति का माध्यम ही श्रृंगार था और यही कारण था कि विद्यापति ने अपने वयं विषयों में श्रृंगार के उत्तान चित्रों के माध्यम से लौकिक रति को अलौकिकत्व प्रदान करने के लिए ही यह माध्यम अपनाया । आलोचक प्राय. उनके काव्य की ऊपरी टालमटोल करके ही उन्हें घोर शृंगारिक का खिताब दे देते हैं । कवि के जीवन-दर्शन और उसकी मूल परिस्थितियों के अन्तराल तक जाने का स्वल्प प्रयास भी नहीं करते। इसलिए प्रालोचकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि वे अनाविल दृष्टि जुटाकर एक बार फिर इस प्रतिमा सम्पन्न कवि के काव्य का अध्ययन करें। उसके काव्य का सम्यक् परिशीलन, यदि विद्यापति के राधा-कृष्ण सम्बन्धी प्रेमलीला विषयक दृष्टिकोण को समझ वैष्णव सगुण सहजयान के परिप्रेक्ष्य में हो, तो कवि के सम्बन्ध में स्थापित पोर श्रृंगारिक धारणा का सहज निराकरण हो सकेगा। भागवत परम्परा राधा से सम्बन्धित नहीं हो सकती। अतः विद्यापति के राधा-कृष्ण विषयक दृष्टिकोण के लिए हमें गीत गोविंद की परंपरा का ही प्राय लेना पड़ेगा और इस परंपरा का सीधा सम्बन्ध भी वैष्णव सगुण सहजयान से ही था । वैष्णव सगुण सहजयान धारा के भक्त कवि होने से उनके द्वारा वरिणत श्रृंगार में सीमा, संकोच तथा मर्यादा जन्य वह पवित्रता (हमारे दृष्टि कोण से ) नहीं रह गई जो हमें सूर के काव्य में देखने को मिलती है। यद्यपि उसकी पवित्रता में विद्यापति की ओर से धांशिक कमी भी नहीं थी परन्तु जीवन के व्यावहारिक पक्ष एवं नैतिक मान्यता को आधार बनाकर जब हम उनके काव्य का मूल्यांकन करेंगे तो हमें उनका काव्य केवल उत्तान शृंगारिक ही शृंगारिक दिखाई पड़ेगा और उनका व्यक्तित्व केवल शृंगारिक बन कर ही रह जायगा । वस्तुतः उनके सम्प्रदाय के भक्ति जन्य सिद्धान्तों को आधार बनाकर हम उनके काव्य का अध्ययन करें, तो हमें स्पष्ट होगा कि उनके भक्ति सिद्धान्तों की तह में उनका सारा श्रृंगार मूति पड़ा है। उक्त समस्त विवेचन के आधार पर यह निर्णय निकला कि वैष्णव सगुण सहजयानी भक्त होने से सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के आधार पर ही (जिन्हें हमने ऊपर स्पष्ट किया है) उन्हें अपनी पदावली की रचना करनी पड़ी। इसलिए महासुख के कामी भक्त कवि विद्यापति ने यदि अपनी शक्ति रूपी नायिका के पथ में गुलाब ही गुलाब बिछाए, सघः स्नाता को लुक छिप कर देखा, बिना कांटों के फूल खिलाए, राधा को । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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