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________________ विद्यापति : एक भक्त कवि १०३ माध्यम से व्यक्त कर अपने साध्य को प्राप्त करें। उन्हें घोर शृंगारिक कहना क्या इस भक्त साधक का घोर अपमान करना नही होगा ? क्या ऐसा कहकर हम उसके व्यक्तित्व, जीवन दर्शन और मूल परिस्थितियों के लिए अपनी भारी प्रज्ञता प्रदर्शित नहीं करेंगे ? उत्तर पाठक के विचारों पर ही छोड़ रहे हैं यों हम पांख मूंद कर विद्यापति को कैसे श्रृंगारिक मात्र काम और विलास की सामग्री प्रस्तुत करने वाला कह दें? यह बात दूसरी है कि जनता पर उनके काव्य का क्या प्रभाव पड़ा और अध्येताओं पर क्या ? पर यह स्पष्ट है, उनके सम्प्रदाय ने उनके सृजन को कभी भी अश्लील करार नहीं दिया, अन्यथा चैतन्य की उनके पदों को परम तन्मयता से गा गाकर मूति हो जाने वाली बात केवल मजाक बनकर रह जाती । विद्यापति को घोर शृंगारिक सिद्ध करने में आलोचकों द्वारा कही इस अन्तिम बात को हम विज्ञ पाठकों के समक्ष रखकर प्रस्तुत विश्लेषण का समापन करना चाहेंगे। आलोचकों ने यह लिखा है कि विद्यापति ने अपने रचना काल में जितने भी श्रृंगारिक वर्णन लिखे उसका उन्हें अन्तिम समय में भारी दुःख हुआ । जिसे उन्होंने भगवान शंकर पर रची नचारियों में स्पष्ट किया और अन्त में उन्हें बड़ी ग्लानि हुई और जावत जनम नहि तुझ पद सेविनु जुवती मनिमय मेलि अमृत तजि किए हलाहल पीयल सम्पद प्रापदहि केलि सांझ क बेरि सेवकाइ मंगइत हेरइत तुव पद लाजे कखन हरब दुख मोर है भोलानाथ उक्त पदों द्वारा कवि विद्यापति ने भगवान् शंकर को सम्बोधित कर अपनी लघुता स्पष्ट की है और कुछ पश्चाताप किया है, यह स्पष्ट होता है, पर इससे तो उनके भक्त के व्यक्तित्व को और असाधारण बल मिलता है । 1 प्रमाण के लिए, एक सशक्त उदाहरण लें रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जैसे महान् कवि का सृजन देखिये पूर्ण मर्यादा संपृक्त एवं श्रृंगार को उत्तानता से एकदम असंपृक्त रामचरित मानस साहित्य का रस सिद्ध काव्य है तो फिर तुलसी की 'विनय पत्रिका' क्या है? दीनता, लघुता, मान मर्थता, भय, पश्चाताप, श्रात्मग्लानि और मनोराज्य से सने भावों का सुन्दर गीतकाव्य । पर उसको लिखने की उन्हें क्या आवश्यकता पड़ी थी ? उन्होंने विद्यापति की भांति कहीं भी घोर श्रृंगार नहीं लिखा फिर काम का और वासनाओं का उन्हें क्या भय था ? अपने उत्तम कर्मों को उन्होंने बुरा कहा। उन्हें स्वयं पर बड़ी आत्मग्लानि हुई और उन्होंने इस सारी आत्मवेदना को 'विनय पत्रिका' में उभारा तो इससे उनका भक्त मर कहाँ गया ? इससे तो उन्हें और अधिक भक्त के रूप में वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है । अतः यदि इसे भक्त की विशालता और आराध्य के समक्ष स्वयं को छोटा मानने तथा उसके समक्ष अपने अपराधों को रखकर क्षमा याचना करने का बड़प्पन कहा जाय तो कौनसी असंगति है ? Jain Education International एक बात विद्यापति के लिए और कही जा सकती है कि वे वैष्णव नहीं, शैव या शिव भक्त थे क्योंकि उन्होंने नचारियों में शिव पर पद लिखे हैं, शिव के साथ गंगा पर भी तो पद लिखे हैं और उनके लिए पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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