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________________ दान-पत्र दशापराध के लिये दण्ड आदि भी इस दान में सम्मिलित थे । किन्तु पूर्व प्रदत्त देवदायों और ब्रह्मदायों पर नन्नुक का अधिकार वजित था। लेख की तिथि संवत् १०६७ माघ शुक्ला पूर्णिमा है। इस तिथि का चन्द्रग्रहण अभिलेख में निर्दिष्ट ही है । अभिलेख के अन्त में दुर्लभ राज की सही है। इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं । मूलराज के अभिलेखों और उल्लेखों से यह प्रायः निश्चित है कि उसके राज्य के अन्तर्गत सारस्वत-मण्डल ( जिसके अन्तर्गत पश्चिमी सरस्वती नदी पर स्थित प्रणहिल्लपाटक और उसके निकटस्थ अन्य स्थान थे ), सौराष्ट्र का बहुत सा भाग, साँचौर के आस पास का प्रदेश आदि भाग थे।' हथूडी के राष्ट्रकूटों के बीजापुर अभिलेख से यह भी सिद्ध है कि मूलराज ने (आबू के परमार राजा) धरणीवराह का उन्मूलन किया था। किन्तु इसका यह मतलब लगाना ठीक न होगा कि मुलराज ने आबू के परमार राज्य को सर्वथा नष्ट कर दिया । भिल्लमाल सांचोर से कुछ अधिक दूर नहीं है । किन्तु इसी धरणीवराह के पुत्र महाराजाधिराज देवराज परमार के संवत् १०५६ के रोपी अभिलेख से सिद्ध है कि उस समय तक भिल्लमाल चौलुक्य राज्य में न हो कर परमार राज्य के अन्तर्गत था। इसके बाद स्थिति बदली होगी। दुर्लभराज चौलुक्य के इस अभिलेख से ( जिसे हम सब सम्पादित कर रहे हैं) यह निश्चित है कि संवत १०६७ में भिल्लमाल चौलुक्य राज्य में आ चुका था। इस का श्रेय संभवतः स्वयं दुर्लभराज को हो । भिल्लमाल मण्डल का शासन दुर्लभराज ने तन्त्रपाल क्षेमराज को सौंपा, जो इस अभिलेख में महाराजाधिराज दुर्लभराज के 'पादपद्मोपजीवी' के रूप में वर्णित है । पंक्ति २-३ के समस्त पद 'स्वभुज्यमान भिल्लमाल मंडल' से यह भी स्पष्ट है कि दुर्लभराज ने भिल्लमाल प्रदेश को अपने राज्य में सर्वथा अन्तगत न कर उसका शासन अपने तन्त्रपाल क्षेमराज को सौंप दिया था। क्षेमराज शायद परमार-वंशी रहा हो। तन्त्रपाल शब्द का अर्थ विचारणीय है । इसका प्रयोग हमें अन्यत्र भी मिलता है । चालुक्य वंशी अवनिवर्मा द्वितीय (योग) के संवत् १५६ के अभिलेख में महेन्द्रपाल प्रथम के तन्त्रपाल धीइक का उल्लेख है। उसकी अनुमति से बलवर्मा और अवनिवर्मा ने दान दिए थे। इसी तरह महेन्द्रपाल द्वितीय के उज्जयिनीस्थ तन्त्रपाल महासामन्त दण्डनायक माधव ने चाहमान इन्द्रराज की प्रार्थना पर मीन संक्रांति के दिन धारापदक नाम का गांव इन्द्रादित्य देव की दैनिक पूजादि के लिए दिया था। इस अभिलेख के अन्त में श्री माधव पौर श्रीविदग्ध की सही है। श्रीविदग्ध को तत्कालीन प्रतिहार सम्राट महेन्द्रपाल द्वितीय का उपनाम मानना ही शायद ठीक होगा। शाकम्भरी के चाहमान राजा विग्रहराज द्वितीय के हर्ष अभिलेख में तन्त्रपाल क्षमापाल का उल्लेख है। सम्राट की आज्ञा से विग्रहराज के पितामह वाक्पति द्वितीय को दण्ड देने के लिए वह १. देखें मूलराज के बड़ोदा, कड़ी, बालेरा आदि अभिलेख, हेमचन्द्र सूरि का 'द्वयाश्रय-काव्य', 'पृथ्वीराज विजय', और 'प्रबन्ध चिन्तामणि' । २. देखें एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द २२, पृ० १९६ आदि। ३. देखें वही, जिल्द ६, पृ० १-१० .. ४. देखें वही, जिल्द १४, पृ० १७६-१८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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