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________________ डा० दशरथ शर्मा अपनी विशालवाहिनी सहित चाहमान राज्य की सीमा पर पहुँचा था १ ।'उपमितिभवप्रपञ्चाकथा' (रचना काल संवत् ६६२) में संतोष राजा सम्यग्दर्शन का तन्त्रपाल है २ । राजाज्ञाओं का पालन करवाना और राजहित की रक्षा तन्त्रपाल के मुख्य कार्य रहे होंगे 3 । स्वामी की अनुमति से अपने अधिकृत भाग के ग्राम प्रादि देने का उन्हें अधिकार था। वर्तमान अभिलेख के अन्य प्रशासनिक शब्द भाग, भोग, उपरिकर और दशापराध-दण्ड हैं। कृषि में से राजादेय छठे, आठवें, या दसवें भाग की पारिभाषिक संज्ञा "भाग" है । राजा शूकधान्य का छठा, शिम्बीधान्य का आठवां और कुछ वर्षों तक अकृष्ट पड़ी भूमि की उपज का दसवां भाग लेता। फल, मूल, शाक, दधि आदि जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं से प्राप्य राजादेय "भोग" कहलाता है। छोटे-मोटे भोगातिरिक्त करों की संज्ञा "उपरिकर" रही होगी। इतिहास के विद्वान अधिकतर भोग और उपरिकर को एक ही मानते हैं । किन्तु यत्र-तत्र इनके पृथक् निदश से इनकी पृथकता का अनुमान किया जा सकता है । राजाज्ञा का लंघन, स्त्रीवध, वर्णसंकरता, परस्त्रीगमन, चोरी, बिना अपने पति के गर्भ, वाक्पारुष्य, अवाच्य, दण्डपारुष्य, और गर्भपात-ये दस अपराध हैं। इन अपराधों के लिए किया हया जुर्माना भी ग्राम के प्रतिगृहीता को मिलता । देवपाल के नालन्दा और नारायणपाल के भागलपुर अभिलेख में दाशापराधिक एक राजपुरुष विशेष की उपाधि भी है । वह सम्भवतः ऐसे अपराधों को मालूम कर अपराधियों को सजा दिलवाता। प्रतिगृहीता का स्वामित्व गांव के अन्तर्गत काष्ठ, तृण करंजादि के वृक्ष और गोचर पर भी था । अनन्यस्वामिक भूमि की अनेक प्रकार की आय पर प्रतिगृहीता का अधिकार रहता। अन्य व्यक्ति प्रतिगृहीता को कुछ धन राशि व उपज का कुछ भाग देकर ही इसके प्रयोग के अधिकारी बनते। इस टिप्पणी को समाप्त करने से पूर्व सम्भवत: यह बताना भी असंगत न होगा कि भिल्लमाल के स्वामित्व में कुछ समय बाद फिर परिवर्तन हुअा। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीमदेव प्रथम ने पाबू पर अधिकार कर लिया और पाबू परमार धन्धुक को कुछ समय तक स्ववंश्य परमार भोज प्रथम के यहां जाकर रहना पड़ा। भीमदेव ने अनेक अन्य विजय भी प्राप्त की। किंतु वि. सं. १०६७ और १११७ के बीच में परमारों ने भिल्लमाल पर फिर अधिकार कर लिया। यहां धन्धुक के पुत्र महाराजाधिराज कृष्णराज द्वितीय के दो अभिलेख मिले हैं, एक संवत् १११७ का और दूसरा संवत् ११२३ का। कृष्णराज को मृत्यु के बाद उसका द्वितीय पुत्र सोच्छराज भीनमाल और किराडू प्रदेश का स्वामी हुआ। संवत् १२३५ के लगभग सोनिगरा चौहानों ने भिल्लमाल पर अपना अधिकार स्थापित किया और लगभग सवा सौ वर्ष तक वहां उनका राज्य बना रहा ।। भिल्लमाल समृद्ध व्यापारियों और विद्वान ब्राह्मणों की नगरी थी। यहीं से विनिर्गत अनेक जातियों से राजस्थान और गुजरात के अनेक नगरों की समृद्धि बढ़ी थी । इन ताम्रपत्रों में वर्णित दान का प्रतिगृहीता भी किसी समय भिल्लमाल का निवासी था। कान्हड़दे प्रबन्ध में यह नगर चौहानों की ब्रह्मपुरी १. देखें अभिलेख का सोलहवां श्लोक २. देखें Rajasthan through the Ages पृ० ३४७, 'उपमितिभवप्रवञ्चाकथा', पृ० ५८२ ३. श्री डी० सी० सरकार ने तन्त्रपाल को दानाध्यक्ष और धार्मिक कृत्याध्यक्ष माना है (देखें उनकी 'इण्डियन एपिग्राफी', पृ. ३७३) जो ठीक प्रतीत नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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