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________________ समाधि-पूर्वक मरण देह के स्वतः छूटने, छुड़ाने तथा त्यागने को 'मरण' कहते हैं, जिसका प्रायु क्षय के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है ।' जो जन्मा है, उसका एक-न-एक दिन मरण अवश्य होता है, चाहे वह किसी भी विधि से क्यों न हो। ऐसा कोई भी प्राणी संसार के इतिहास में नहीं, जो जन्म लेकर मरण को प्राप्त न हुआ हो । बड़े-बड़े साधन-सम्पन्न राजा-महाराजा, चक्रवर्ती, देव-दानव, इन्द्र-धरणेन्द्र, वैद्य-हकीम, डाक्टर और ऋषि-मुनि तक सब को अपना-अपना वर्तमान शरीर छोड़ कर काल के गाल में जाने के लिए विवश होना पड़ा है। कोई भी दिव्य-शक्ति-विद्या-मणि-मंत्र-तंत्र-औषधादिक किसी को भी काल-प्राप्त मरण से बचाने में कभी समर्थ नहीं हो सके हैं। इसी से 'मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम्'-मरना देहधारियों की प्रकृति में दाखिल है, वह उनका स्वभाव है, उसे कोई टाल नहीं सकता-यह एक अटल नियम बना हुआ है । ऐसी स्थिति में जो विवेकी हैं-जिन्होंने देह और आत्मा के अन्तर को भली प्रकार से समझ लिया है-उनके लिए मरने से डरना क्या? वे तो समझते हैं कि जीवात्मा अलग और देह अलग है-दोनों स्वभावतः एक दसरे से भिन्न हैं-जीवात्मा कभी मरता नहीं, मरण देह का होता है। जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर उसी प्रकार धारण कर लेता है जिस प्रकार कि मैले कुचैले तथा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र धारण किया जाता है। इसमें हानि की कोई बात नहीं, वह तो एक प्रकार से आनन्द का विषय है और इसलिए वे भय, शोक तथा संक्लेशादि से रहित होकर सावधानी के साथ देह का त्याग करते हैं। इस सावधानी के साथ देह के त्याग को ही 'समाधि-मरण' कहते हैं। मरण का 'समाधि' विशेषण इस मरण को उस मरण से भिन्न कर देता है जो साधारण तौर पर प्रायु का अन्त आने पर प्रायः सांसारिक जीवों के साथ घटित होता है अथवा प्रायु का स्वतः अन्त न आने पर भी क्रोधादिक के आवेश में या मोह से पागल होकर अपघात' (खुदकशी Suicide) के रूप में उसे प्रस्तुत किया जाता है और जिसमें प्रात्मा की कोई सावधानी एवं स्वरूपस्थिति नहीं रहती। समाधि-पूर्वक मरण में प्रात्मा की प्रायः पूरी सावधानी रहती है और मोह तथा क्रोधादि कषायों के आवेग में कुछ नहीं किया जाता, प्रत्युत उन्हें जीता जाता है तथा चित्त की शुद्धि को स्थिर किया जाता है और इसी से कष य तथा काय के संलेखन-कृषीकरण-रूप में इस समाधि मरण का दूसरा नाम १. प्राउक्वएण मरणं जीवाणं जिण वरेहिं पण्णत्तं । (समयसार) पाउकवएण मरणं पाउ दाउंण सक्कदे को वि । (कातिके०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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