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________________ समाधि-पूर्वक मरण 'सल्लेखना-मरण' भी है, जिसे आम तौर पर 'सल्लेखना' कहते हैं। यह सल्लेखना चूकि 'मारणान्तिकी होती है ---मरण का अवश्यम्भावी होना जब प्रायः निश्चित हो जाता है, तब की जाती है इसलिए इसे 'अन्तक्रिया' भी कहते हैं, जो कि जीवन के अन्त में की जाने वाली आत्म-विकास-साधना-क्रिया के रूप में एक धार्मिक अनुष्ठान है और इसलिए अपघात, खुदकुशी (Suicide) जैसे अपराधों की सीमा से बाहर की वस्तु है । इस क्रिया-द्वारा देह का जो त्याग होता है वह आत्म-विकास में सहायक अर्हदादि-पंचपरमेष्ठी अथवा परमात्मा का ध्यान करते हुए बड़े यत्न एवं सावधानी के साथ होता है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के पंच-नमस्कारमनास्तुनंत्यजेत्सर्वयत्नेन, इस वाक्य से जाना जाता है-यों ही विष खाकर, कूपादिक में डब कर, पर्वतादिक से गिरकर, अग्नि में जलकर, गोली मारकर या अन्य अस्त्र-शस्त्रादि से प्राघात पहँचाकर सम्पन्न नहीं किया जाता। इस सल्लेखना अथवा समाधि-मरण की योग्यता-पात्रता कब प्राप्त होती है और उसे किस उद्देश्य को लेकर किया जाता है इन दोनों का बड़ा ही सुन्दर निर्देश स्वामी समन्तभद्र ने सल्लेखना के अपने निम्नलक्षण में अन्तनिहित किया है उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे । धर्माय तनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ १२२ ॥ -समीचीन धर्मशास्त्र इसमें बतलाया है कि 'जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा (बुढ़ापा) तथा रोग प्रतीकार (उपाय-उपचार) . रहित असाध्य दशा को प्राप्त हो जाय अथवा ( चकार से ) ऐसा ही कोई दूसरा प्राणघातक अनिवार्य कारण उपस्थित हो जाय तब धर्म की रक्षा-पालन के लिए जो देह का विधिपूर्वक त्याग है उसको सल्लेखना-समाधिमरण कहते हैं।' इस लक्षण-निर्देश में निःप्रतीकारे और 'धर्माय' ये दो पद खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं। उपसर्गादिकका 'निःप्रतीकार' विशेषण इस बात को सूचित करता है कि अपने ऊपर आए हुए चेतन-प्रचेतन कृत उपसर्ग, दुर्भिक्ष तथा रोगादिक को दूर करने का जब कोई उपाय नहीं बन सकता तो उसके निमित्त को पाकर एक मनुष्य सल्लेखना का अधिकारी तथा पात्र होता है, अन्यथा उपाय के संभव और सशक्य होने पर वह उसका अधिकारी तथा पात्र नहीं होता। दूसरा 'धर्माय' पद दो दृष्टियों को लिए हुए है-एक अपने स्वीकृत समीचीन धर्म की रक्षा-पालना की, और दूसरी आत्मीय धर्म की यथा शक्य साधना-आराधना की। धर्म की रक्षादि के अर्थ शरीर के त्याग की बात १. मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता।-त०सू० ७-२२. २. भगवती पाराधना में भी ऐसे दूसरे सदृश कारण की कल्पना एवं सूचना की गई है। जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है'अण्णं पिचापि एदारिसम्भि प्रगाढ कारणे जा दे।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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