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________________ विभिन्न प्रान्तों में पैदल परिभ्रमण कर जनता जनादन के अन्दर सत्य अहिंसा का जो प्रचार- प्रसार किया है, वह स्तुत्य है, आप सर्वधर्म समन्वय की समर्थक हैं, जिस प्रकार अग्नि का संस्पर्श पाकर काला कलूटा कोयला भी सोने की तरह चमकने लगता है उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है, वैसे ही महासती जी के सान्निध्य से अनेक भव्य जीवों के जीवन में नई चेतना नया आलोक पैदा हुआ है। मेरी कामना है कि महासती श्री कुसुमवतीजी आध्यात्मिक जीवन की प्रगति करते हुए धर्म एवं समाज के कल्याण में सदा सर्वदा निरत रहें । साध्वी दिव्यप्रभा ( एम. ए., पी-एच. डी. ) गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात्परं ब्रह्म तम्मै सद्गुरवे नमः ॥ कभी-कभी जीवन के कुछ क्षण बहुत ही सुहावने होते हैं । गुरुवर्या श्री की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती का पावन प्रसंग है । हृदयोद्गार अभिव्यक्ति को ललक रहे हैं, पर विराट् व्यक्तित्व को शब्दों की परिधि में बाँधना सागर को गागर में भरने के समान दुरूह है । श्रद्धार्चन पूज्या गुरुणीजी महाराज के विषय में कुछ लिखने को उद्यत हुई हूँ पर जो जितना समीप होता है उसके बारे में लिखना उतना ही कठिन होता है । वे अनेक गुणों के पुञ्ज हैं । अनेक विशेषताओं के संगम हैं । उनके गुणों / विशेषताओं को मेरी तुच्छ बुद्धि के द्वारा कैसे अंकन करू? इतना सामर्थ्य नहीं है. आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में ३४ कल्पान्तवान्त पयसः प्रकटऽपि यस्मान् मत न जलधेनु रत्नराशिः फिर भी मैं कुछ लिखने को तत्पर हुई हैं । Jaiucation International गुरुवर्या के प्रति अनन्य श्रद्धा मुझे प्रेरित कर रही है । पूज्या गुरुणीजी म. सा. के साथ मेरा दोहरा सम्बन्ध है । एक तो मैं उनकी संसारपक्षीय ममेरी बहिन हैं, दूसरी अन्तेवासिनी शिष्या । जब मैं बहुत छोटी भी तब मेरी मातेश्वरी श्रीमती चौथबाई यदाकदा बताया करती थी कि कैलाशकुंवरजी : महाराज सा. तुम्हारे भुआ महा है और कुसुमवती जी म. उनकी लड़की है । भुआ म. सा. बड़े धीरवीर गम्भीर है तथा बहिन महाराज बहुत पढ़े-लिखे विद्वान् हैं, मातुश्री उनके गुणों का वर्णन करती हुई अघाती नहीं थीं । मेरे बाल मन में भी भावना उद्बुद्ध होती कि भुआ महाराज बहिन म. के दर्शन करूँ लेकिन उस समय वे दूर विचर रहे थे । सम्वत् २०२४ सन् १९६७ में विश्वरते हुए म. सा. उदयपुर पधारे। हालांकि दर्शन तो पहले भी किये होंगे, लेकिन स्मृति में नहीं थे। उस समय में नौ-दस वर्ष की थी । माताजी के साथ भुआ महाराज एवं बहिन महा के दर्शन करने गई । उनके दर्शन कर व मधुर वाणी को सुनकर मन मयूर नाच उठा । हृदय प्रसन्नता से भर उठा। घर गई, स्कूल गई लेकिन उनकी मधुर वाणी एवं दिव्य छवि मन प्राणों में बस गई। धीरे-धीरे प्रतिदिन जाने का क्रम बन गया । 1 सम्वत् २०२४ का वर्षावास उदयपुर ही हुआ । बहिन महाराज मुझे प्रतिक्रमण आदि ज्ञान ध्यान सिखाते थे । कभी-कभी प्रेरणा भी देते कि यह जीवन बहुत पुण्य के उदय से मिला है खेलना-कूदना, खानापीना ही इस जीवन का उद्देश्य नहीं है बल्कि पुण्यवानी से मानव जीवन मिला है तो अपने को महान बनाना चाहिए | महाराजश्री के सतत् सान्निध्य और सदुपदेश से मेरे मन में भावना हुई कि मैं भी दीक्षा लूं । कुछ समय पश्चात् मैंने मेरी भावना अपनी माताजी के समक्ष रखी । मातुश्री का रोम-रोम धार्मिक भाव - | प्रथम खण्ड : श्रद्धावना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Private & Personal Use Only A www.jainelibrating
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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