SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 560
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SAN है । सम्यग्दर्शन एक वह दिव्य कला है जिसके उप- नल सम्यग्ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ किसी योग और प्रयोग से आत्मा संसार के समग्र बन्धनों ग्रन्थ का ज्ञान नहीं है अपने ज्योतिर्मय स्वरूप का से मुक्त हो जाता है । संसार के दुःख और क्लेश से बोध ही सच्चा ज्ञान है, यथार्थ ज्ञान है । "मैं आत्मा । सर्वथा रहित हो जाता है। सम्यग्दर्शन की हूँ" यह ज्ञान जिस साधक को हो गया है उसे फिर विशिष्ट उपलब्धि होते ही यह पूर्ण रूप से पता किसी भी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । परन्तु | चलने लगता है कि आत्मा में असीम क्षमता है, यह आत्म-स्वरूप का ज्ञान तभी सम्भव है जब कि अपार शक्ति है और अमित बल है । जब आत्मा उससे पूर्व सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो चुकी हो का अपने आपको जड़ न समझकर चेतन समझने क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में जैनत्व का एक लगता है। तब सभी प्रकार की सिद्धियों के द्वार अंश भी सम्प्राप्त नहीं हो सकता। यदि सम्यग्दर्शन उद्घाटित हो जाते हैं । जरा अपने भीतर झांककर की एक प्रकाश किरण भी जीवन क्षितिज पर देखना है, और अपने अन्तहदय की अतल गहराई चमक-दमक जाती है तो गहन से भी न में उतरकर सुदृढ़ विश्वास के साथ कहना है कि गहन गर्त में पतित आत्मा के अभ्युदय की आशा नाशी आत्मा , अन्य कल भी नहीं। हो जाती है। सम्यग्दर्शन की उस दिव्य-किरण का मैं केवल चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ, जड़ नहीं । मैं प्रकाश भले ही कितना मन्द क्यों न हो परन्तु । सदा-सर्वदा शाश्वत हैं जल तरंगवत् क्षणभंगर नहीं। उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती न मेरा कभी जन्म होता है और न कभो मरण है, क्षमता होती है। हमें यह भी याद रखना है कि होता है । जन्म मृत्यू मेरे नहीं है। ये तो शरीर के उस निरंजन और निर्विकार परमात्मा को खोजने खेल है । देह का जन्म होता है और देह की मृत्यु के लिए कहीं इधर-उधर भटकने की आवश्यकता होती है । जन्मने और मरने वाला मैं नहीं हूँ, मेरा नहीं है। वह अपने अन्तरात्मा में ही है। जिस यह विनाशशील शरीर है। जिस साधक ने अपनी प्रकार घनघोर घटाओं के मध्य, विद्य त की क्षीणआध्यात्मिक साधना के माध्यम से अपने सहज- रेखा के चमक जाने पर क्षण भर के लिए यत्र-तत्र विश्वास और स्वाभाविक सुबोध को उपलब्ध कर सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार एक क्षणलिया है वह यही कहता है कि मैं अनन्त हैं, मैं मात्र के लिए, सम्यग्दर्शन की दिव्य ज्योति के अजर हैं, मैं अमर हैं, मैं शाश्वत है, मैं सर्वशक्ति- प्रगट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का सममान हैं। वास्तव में मैं आत्मा हैं यह दृढ विश्वास द्वार हो ही जायेगा। बिजली की चमक में सब करना ही सम्यग्दर्शन है। अपनी अखण्ड सत्ता कुछ दृष्टिगोचर हो जाता है उसी प्रकार परमात्मकी स्पष्ट रूप से प्रतीति होना ही आध्यात्मिक तत्व के प्रकाश की एक प्रकाश-किरण भी अन्तजीवन की सर्वश्रेष्ठ और सर्व ज्येष्ठ उपलब्धि है। मन में जगमगा उठती है तो फिर भले ही वह कुछ अध्यात्म साधना के क्षेत्र में सम्यगज्ञान का महत्व- क्षण के लिए ही क्यों न हो उसके प्रकाश में पूर्ण स्थान रहा है । ज्ञान मुक्ति-प्राप्ति का एक मिथ्याज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है । ज्ञान को अमोघ साधन है। अज्ञान और वासना के सघन सम्यग्ज्ञान बनाने वाला सम्यग्दर्शन ही है। यह अरण्य को जलाकर भस्मसात् करने वाला दावा- सभ्यग्दर्शन अध्यात्म साधना का प्राणतत्व है। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन । - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Jain Education International P rivate Personall.se Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy