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________________ कहानी १. वैर और वैरी क्रोध जब स्थायित्व ग्रहण कर लेता है तो वैर निष्ठा से निभाया। दोनों भाई लाठी चलाने से का रूप धारण कर लेता है। क्रोध की अवधि लेकर, भाला, खड्ग आदि शस्त्रों का संचालन भी वैर पीढी-दर-पीढी.जन्म-प्रति- बडी कुशलता से करते थे। दोनों मल्लविद्या में भी जन्म तक भी चलता है। क्रोध घातक है तो वैर पारंगत थे। शत्रु की ललकार सुनकर भाइयों की महाघातक है । अचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वैर को भुजाएँ फड़क उठती थीं। माँ को अपने पुत्रों पर क्रोध का अचार या मुरब्बा उसके स्थायित्व को गर्व था। दोनों भाई जब मल्लयुद्ध करने अखाड़े लक्ष्य करके कहा है। में जाते थे तो मां उन्हें आशीर्वाद देते समय एक ही __कुलपुत्र का भ्रातृवियोग क्रोध में और क्रोध बात कहतीवैर में बदल गया था। उसने प्रतिज्ञा कर डाली "मेरे दूध की लाज रखना, पिता का नाम ऊँचा -जब तक मैं अपने भ्रातृहन्ता का वध नहीं कर करना और यह सिद्ध करके आना कि क्षत्रियपुत्र लूंगा, तब तक घर नहीं लौटूंगा। क्षत्रियों के मरना जानते हैं, डरना नहीं।" | स्वभाव में यह उक्ति घुलमिल गई है--जिनके शत्रु दोनों भाई, जिससे भी भिड़े, उसे पराजित जीवित डोलें, तिनके जीवन को धिक्कार । करके ही आये । एक बार बड़े भाई के एक प्रति सन्त जन भले ही यह कहते हों कि "बदला" द्वन्द्वी ने, जब वह घर लौट रहा था, पीछे से उस अमानवीय शब्द है। पर क्षत्रियों का मानना यह पर वार किया और भाग गया। छोटा भाई तो है कि जब तक शत्रु से बदला न ले लिया जाए, तब हक्का-बक्का रह गया। उसकी चीख सुनकर माँ तक क्षत्रिय क्षत्रिय नहीं। यह कुलपुत्र भी तो दौड़ी आई । पास-पड़ोस के लोग भी इकट्ठे हो क्षत्रिय था, तो फिर अपने भाई को मारने वाले से गए । माता और भाई का करुण क्रन्दन देखा नहीं ERA बदला लेने की प्रतिज्ञा क्यों न करता ? जाता था । ठकुरानी पछाड़ें खा रही थी। भाई __ किसी नगर में एक क्षत्रिय परिवार हता था। छाती पीटकर रुदन कर रहा था। | घर में चार प्राणी थे-पति-पत्नी और दो बच्चे। संसार की हर वस्तु क्षणिक है। वियोग का Hदोनों भाइयों में तीन वर्ष का अन्तर था। बड़ा भाई शोक भी समय के साथ घटता है। रोते-रोते तीन पाँच वर्ष का था और छोटा दो का, तभी इनके चार घड़ी का समय बीता तो माता को पुत्र || पिता का देहान्त हो गया । असमय में ही ठकुरानी का और अनुज को अग्रज का शोक कुछ कम हुआ विधवा और बालक अनाथ हो गए । फिर भी ठकू- -कुछ स्थिर हो गया। अब वे परिस्थिति पर रानी ने हिम्मत नहीं हारो। गुजारे के लिए उसके विचार करने लगे। ठकुरानी सिंहनी-सी उठकर पति की छोड़ी गई पर्याप्त सम्पत्ति थी । उसने दोनों खड़ी हो गई और अपने पुत्र को धिक्कारने हो पुत्रों के लालन-पालन और शिक्षा का कर्तव्य पूरी लगी ये सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ५०५ 68 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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