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________________ tr0457.ES VERIOASYA MP सका है । आत्मतत्व की अमरता पर विश्वास हो चाहिए कि दर्शन गुण की उक्त दोनों ही पर्यायें का जाने पर जब तक उसकी दिव्य-उपलब्धि नहीं होती कभी एक साथ नहीं रहती हैं। जब मिथ्या पर्याय IN हैं तब तक जीवन-संघर्ष के मूल का उन्मूलन नहीं का सदभाव है तब सम्यग् पर्याय नहीं रहेगी और न हो सकता । आत्मा की अमरता का परिज्ञान एक जब सम्यग् पर्याय है तब मिथ्यापर्याय कभी नहीं महान उपलब्धि है । परन्तु यह तथ्य भी ज्ञातव्य है रह सकती। जहाँ रजनी है वहाँ रवि नहीं है और ॥ कि आत्मा की सत्ता का भान और उसकी अनन्त जहाँ रवि है वहाँ रजनी नहीं है। इसी प्रकार जहाँ । शक्ति का परिज्ञान एक चीज नहीं है। पृथक-पृथक दर्शन की मिथ्या पर्याय है वहाँ सम्यग् पर्याय नहीं 43 चीजें हैं । आत्मा की असीम, अक्षय सत्ता की रह सकती और जहाँ दर्शन की सम्यग पर्याय है ॥ प्रतीति होने पर भी, जब तक उसकी अनन्त-अनन्त वहाँ मिथ्या पर्याय नहीं रहती। मेरा स्पष्ट मन्तव्य की शक्तियों का परिज्ञान नहीं होता और उसकी प्रयोग इतना ही है कि वस्त तत्व में उत्पाद और व्यय विधि का ज्ञान नहीं है,तो शक्ति के रहते हुए भी वह पर्याय की अपेक्षा से है, द्रव्यदृष्टि और गुणदृष्टि कुछ कर नहीं सकता। सम्यग्दर्शन का एक मात्र से नहीं । द्रव्यदृष्टि से विराट विश्व की प्रत्येक वस्तु | परम-उद्देश्य यही है कि आत्मा को अपनी क्षमता सत् है, असत् नहीं है क्योंकि जो वस्तु सत् है वह का और शक्ति की जो विस्मृति हो गई है, उसे दूर करना तीन काल में भी असत् नहीं हो सकती और जो || है । जो असत्यपूर्व है और जिसकी मूल स्थिति नहीं असत् है वह भी तीन काल में सत् नहीं हो सकती, की है. जिसका कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है परन्तु जिसे किन्त पर्याय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ सत् और 3 आत्मा ने अपनी अज्ञानता के कारण से सब कुछ जान असत् दोनों हो सकते हैं । जब मैंने सम्यग्दर्शनरूपी लिया है, समझ लिया है उस भ्रान्ति को दूर करना। दिव्य-रत्न प्राप्त कर लिया तब इसका अभिप्राय जैन दर्शन का स्पष्ट आघोष है कि सम्यग्दर्शन यह नहीं होगा कि पहले मेरे में सम्यग्दर्शन का उपलब्ध करने का अर्थ यह नहीं है कि पहले कभी सद्भाव नहीं था और आज ही वह नये रूप में दर्शन का सद्भाव नहीं था और अब वह नये रूप उत्पन्न हो गया। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है में उत्पन्न हो गया। दर्शन को मूलतः समुत्पन्न कि आत्मा का जो 'दर्शन' नामक गुण आत्मा में मानने का अभिप्राय यह होगा कि एक दिन वह अनन्तकाल से विद्यमान था उस दर्शन गुण की विनष्ट हो सकता है। सम्यग्दर्शन के उद्भव का मिथ्या पर्याय को परित्याग कर मैंने उसकी सम्यग् अर्थ किसी नवीन पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि पर्याय को प्राप्त कर लिया। आगमीय भाषा में सम्यग्दर्शन की समुत्पत्ति का तात्पर्य इतना ही है इसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कहा जाता है । जैन कि वह विकृत से अविकृत हो गया। वह पराभि- दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि मूलतः कोई नवीन मुख था, स्वाभिमुख हो गया और वह मिथ्यात्व से चीज प्राप्त करने जैसी बात नहीं है बल्कि जो सदा सम्यग् हो गया। आत्मा का जो श्रद्धान नामक से विद्यमान रही है उसको शुद्धतम रूप से जाननेगुण है, आत्मा का जो दर्शन नामक गुण है, सम्यग् पहचानने और देखने की बात है। सम्यग्दर्शन की और मिथ्या ये दोनों आत्मा की पर्याय हैं । मिथ्या- उपलब्धि का यही अभीष्ट अर्थ है। दर्शन एवं सम्यग्दर्शन इन दोनों में दर्शन शब्द पड़ा अध्यात्मसाधक के जीवन में सम्यग्दर्शन की हुआ है । जिसका अभिप्रेत अर्थ है-दर्शन गुण कभी कितनी गुरुता है, कितनी महिमा है, और कितनी मिथ्या भी होता है, और सम्यग भी होता है। गरिमा है-शास्त्र इसके प्रमाण हैं। सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शन का फल 'संसार' है और सम्यग्दर्शन वस्तुतः एक वह विशिष्ट कला है, जिससे आत्मा 1 का फल मोक्ष है। किन्तु इतना अवश्य ही जानना स्व और पर के भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता । सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन (C) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org ५०३
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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