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________________ भावश्रमण को, अर्थात् जो साधु धर्म का भावपूर्वक शुद्ध पालन करते हैं, ही वाचना देते हैं या अध्ययन कराते हैं, केवल वेशधारी साधु को नहीं । यदि वे ऐसा नहीं करते तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। इसका अभिप्राय है कि अध्यापक शिष्य की पात्रता को देखकर परखकर ही उसे अध्ययन करावें । तभी अध्ययन-अध्यापन फलीभूत होता है । शिक्षण-प्रक्रिया में उपाध्याय अपनी विद्वत्ता एवं बुद्धि का सम्यक् प्रयोग करते हुए आचरण का आदर्श शिष्यों के समक्ष रखते हैं । इससे शिष्यवर्ग में गुरु के प्रति श्रद्धाभाव दृढ़ बनता है। व्यवहार सूत्र में दीक्षा पर्याय अर्थात् कौन श्रमण कितने वर्षों से साधु जीवन का पालन कर रहा है, इसे लक्ष्य करके विविध शास्त्रों को वाचना लेने या शिक्षा प्राप्त करने हेतु साधुओं को अधिकृत किया गया है । जैसे तीन वर्ष का साधु जीवन जो श्रमण-श्रमणी पूर्ण कर चुका, उसे आचारकल्प, आचार रांग, निशीथादि सूत्रों का अध्ययन कराया जा सकता है, आदि । इस प्रकार श्रमण शिष्यों की पात्रता के अनुसार उन्हें वाचना या शिक्षण प्रदान करते हुए उपाध्याय स्वयं जैसी वाचना देते हैं वैसा ही वे स्वयं आचार का भी परिपालन करते हैं। आचार्य-ये साधु-साध्वी, श्रावक-श्रादिका (व्रतधारी सद्गृहस्थवर्ग) रूप संघ के नायक होते हैं। इस चतुर्विध संघ में धर्म का उद्योत हो और संघ के सदस्य धर्माराधना में अग्रसर हों, इस हेतु आचार्य उन्हें नेतृत्व प्रदान करते हैं। संघ में आचार्य भी अपने शिष्यों तथा अन्य श्रमणों को अध्ययन कराते हैं । वे शास्त्रों के पाठी होते हैं और शास्त्रों के मर्मज्ञ होते हैं । शास्त्र में आचार्य के ३६ गुणों का उल्लेख उपलब्ध होता है। वे आजीवन अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का पूर्णरूपेण मन, वचन, कर्म से पालन करते हैं । ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों का पालन करते. पाँच इन्द्रिय जी पाँच इन्द्रिय जीतते, क्रोधादि चार कषाय जीतते, ६ बाड़सहित ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पाँच समिति तीन गुप्ति का शुद्ध पालन करते हैं । वे स्वयं आचार का पालन करने से आचार्य कहलाते और अन्यों को भी आचार पालने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। सूत्र दशाश्रु तस्कन्ध में आचार्य की आठ सम्पदाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, आचारसम्पदा आदि । आचार सम्पदा के अनुसार आचारनिष्ठा आचार्य का प्रमुख गुण है। वे आचार में दृढ़ और ध्रुव होते हैं । आचार सम्पन्न होने पर भी उन्हें किंचित् भी अभिमान नहीं होता। वे सदा संयम में जागृत रहते और अन्यों को भी जागृत रखते हैं । श्रुतसम्पदा में उनके ज्ञान की समृद्धि दर्शाते हुए शास्त्रकार ने बताया है कि वे आचार्य परिचितश्रुत अर्थात् आगमों के सूत्र-अर्थ के मर्मज्ञ, बहुश्रुत अर्थात् बहुत आगमों के ज्ञाता, विचित्रश्रुत अर्थात् स्वमत तथा अन्यमत के गहन अध्येता तथा घोषविशुद्धिकारकता में शब्द प्रयोग में अलंकृतत्व, सत्यत्व, प्रियत्व, हितत्व तथा प्रासंगिकता आदि में कुशल होते हैं। 'शरीर सम्पदा' में आचार्य के शरीर के बलवान, कान्तिमान, सुरूपवान एवं पूर्णेन्द्रिय, सन्तुलित आकार-प्रकार आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य को केवल आचारवान, श्र तवान एवं मतिमान ही नहीं बताया गया है, अपितु उनके शरीर के उत्तम रूप, आकार, बल को भी उनकी विशेषताओं में स्थान दिया गया है। Ss PROLLS १. निशीथसूत्र उद्दे. १६ सूत्र २७ ३. आवश्यक सूत्र -अरिहंतादि पंचपद भाववन्दन २. व्यवहार सूत्र उद्देशक १० सूत्र २१ से ३७ ४. दशाश्रुतस्कन्धसूत्र अध्ययन ४ सूत्र ३ से १० षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ Ho5000 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International FORivate personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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