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________________ %EM मुक्तिमार्ग के तीन तत्त्वों में देव और धर्म के साथ गुरु को भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । गुरु ही देव और धर्म का बोध कराते हैं । जिससे सुदेव और जिनप्ररूपित धर्म की आराधना दा करके साधक मुक्ति मार्ग पर सफलता से अग्रसर होता है। जैनधर्म के नमस्कार मंत्र में सिद्ध भगवान से पहले णमो अरिहन्ताणं' पद में अरिहन्तों को र वन्दन किया गया है क्योंकि मुक्ति प्राप्त सिद्धों की अनुपस्थिति में संसार को कल्याण का मार्ग बताने | वाले अरिहन्त ही हैं। वे ही विश्व के गुरु हैं । सूत्र दशवैकालिक में गुरु की महिमा और गरिमा को | व्यक्त करते हुए कहा गया है कि संभव है अग्नि न जलाए अथवा कुपित जहरीला साँप न खाए । संभव है ला समुद्रमन्थन से प्राप्त घातक विष न मारे, किन्तु आध्यात्मिक गुरु की अवज्ञा से परम शान्ति संभव ही 20 नहीं है। जैन विचारधारा में आचार्य और उपाध्याय दोनों को गुरु/शिक्षक माना गया है। वे साधुसाध्वियों को शास्त्रों की वाचना या शिक्षा देते हैं। वे स्वयं शास्त्र का अध्ययन करते और अन्यों को भी अध्ययन कराते हैं । यद्यपि शिक्षण का कार्य मुख्यतया उपाध्याय के द्वारा ही संपन्न होता है, तथापि आचार्य भी अपने पास अध्ययन करने वाले साधु-साध्वी वर्ग को अध्ययन करते हुए शिक्षण का कार्य करते हैं। उपाध्याय-ये शास्त्रों के रहस्य के ज्ञाता एवं पारंगत होते हैं। ज्ञान और क्रिया से युक्त इनका संयम या चारित्र शिष्य वर्ग को गहन प्रेरणा प्रदान करता है। ये २५ गुणों के धारक होते हैं । ११ अंग १२ उपांग सूत्रों के ज्ञाता होने के साथ चरणसत्तरी एवं करणसत्तरी रूप चारित्रिक गुणों के धारक होते हैं। ये स्वमत एवं परमत अर्थात् अन्य दर्शनों धर्मों के भी ज्ञाता होते हैं। अपने शिष्यों को उनकी योग्यता एवं पात्रता के अनुरूप शिक्षण देते हुए वे हेतु, दृष्टांत, तर्क एवं उदाहरणों से तत्त्वों की व्याख्या करते हैं जो शिक्षण को सरस, रुचिप्रद, बोधगम्य एवं हृदयग्राही बनाता है। उपाध्याय में ८ प्रभावक गुण होते हैं जो उनके जीवन की महनीयता को प्रकट करते हैं: १. प्रवचनी-जैन व जैनेतर आगमों के मर्मज्ञ विद्वान । २. धर्मकथी-धर्मकथा (धर्मोपदेश) करने में कुशल । ३. वादी-स्वपक्ष के मण्डन और परपक्ष के खंडन में सिद्धहस्त । ४. नैमित्तिक-भूत, भविष्य और वर्तमान में होने वाले हानि-लाभ के ज्ञाता । ५. तपस्वी-विविध प्रकार के तप करने में निपुण । ६. विद्यावान-रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि १४ विद्याओं में निष्णात । ७. सिद्ध-अंजन आदि विविध प्रकार की सिद्धियों के ज्ञाता । ८. कवि-गद्य, पद्य, कथ्य, गेय चार प्रकार के काव्यों की रचना करने वाले । जितना उनका ज्ञान पक्ष प्रबल है, उतना ही उनका चारित्र या क्रियापक्ष भी सुदृढ़ होता है । संघ में जो सम्मान आचार्य को दिया जाता है, वही सम्मान उपाध्याय को भी प्राप्त होता है । उपाध्याय AlioneZRS. १. दशवकालिक सूत्र अध्ययन ह गाथा ७ २. आवश्यक सूत्र ३. संकलित-जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप-उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि ee ४५० षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ Moto साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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