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________________ आचार्य की वाचना सम्पदा या अध्यापन शिक्षण सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन एवं उसको व्याख्या करना यहाँ अत्यन्त प्रासंगिक है। प्रत्येक सम्पदा की तरह 'वाचना सम्पदा' के भी चार भेद किए गए हैं । वे हैं-(अ) विदित्वोशिति (ब) विदित्वा वाचयति (स) परिनिर्वाप्य वाचपति (द) अर्थ निर्यापकता । प्रथम विदित्वोदिशति में या शिक्षण की विशेषता में सर्वप्रथम आचार्य शिष्य का किस आगम में प्रवेश हो सकता है, ऐसा जानकर उनका अध्यापन करते या वाचना देते हैं । प्रारम्भ से ही आचार्य का लक्ष्य शिक्षार्थी होता है न कि शिक्षण सामग्री या पाठय वस्तु । वे शिष्य को जानकर और पहचानकर ही शिक्षण-क्रिया का प्रारम्भ करते हैं। विदित्वा वाचयति में शिष्य की धारणाशक्ति की और उसकी योग्यता को जानकर प्रमाण, नय, हेतु, दृष्टान्त एवं युक्ति आदि से सूत्र अर्थ और दोनों की शिक्षा देते हैं। इसका अभिप्राय है कि शिक्षार्थी ही शिक्षण का केन्द्र रहता है । आचार्य पाठ्य ग्रन्थों से भी अधिक शिष्य को जानने का प्रयास करते हैं । यही शिक्षण का मर्म भी है । परिनिर्वाप्यवाचयति में सर्व प्रकार से पूर्व पठित विषय को शिष्य ने भलीभांति ग्रहण कर लिया है, यह जानकर ही वे शिष्य को आगे शिक्षण करते या वाचना देते हैं । 'अर्थ निर्यापकता' में सूत्र में निरूपित तत्त्वों का निर्णय रूप परमार्थ का अध्यापन वे पूर्वापर सगति द्वारा, उत्सर्ग, अपवाद, | स्यादवाद आदि से स्वयं जानकर शिष्यों को सिखाते हैं। अर्थात आचार्य का निजी अध्ययन, अध्यापन क्रिया के साथ गतिमान रहता है । आचार्य का शिक्षण भी रुचिकर और सुबोध बनता है क्योंकि वे हेतु, दृष्टांत, युक्ति, उदाहरण आदि का प्रयोग करते हुए विषय का स्पष्टीकरण करते हैं। आचार्य चूंकि संघ के अनुशास्ता होते हैं, अतः वे प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा सम्प्रदाओं में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परिज्ञान एवं निर्णय करके अपने शिष्यों के लिए सर्वतोभावेन व्यवस्था देखते हैं। यह उनका अनुशासन का/शिक्षा-प्रबन्ध का एक रूप होता है। उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति सान्निध्य में रहने वाले शिष्यों के लिए आदर्श होती है। उन व्यवहारों को देखकर शिष्य उनका अनुकरण करते और जीवन में अग्रसर होते हैं। शिक्षार्थी या शिष्य का स्वरूप-जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल शरीरमय नहीं होता । उसमें एक परमशक्तिशाली ज्ञानवान आत्मतत्त्व भी होता है। इसी प्रकार शिष्य भी केवल शरीरधारी व्यक्ति ही नहीं, एक अनन्त शक्ति एवं ज्ञान सम्पन्न आत्मा भी होता है । जैन सिद्धान्त 'अप्पा सो परमप्पा' के अनुसार 'आत्मा'ही परमात्मा है।' प्रत्येक आत्मा में परमात्मस्वरूप पाने की क्षमताएँ निहित होती हैं, भले ही वे कर्मों के आवरण से प्रकट नहीं हो पा रही हों। शिष्य भी इन शक्तियों का पूज है और शिक्षा इन शक्तियों और क्षमताओं को विकसित करती और प्रकट करती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, उपयोग और वीर्य सभी आत्माओं के समान गुण हैं। इन गुणों से युक्त सभी आत्माएँ एक हैं । यह प्राणीमात्र की एकता का सुदृढ़ आधार है। शिष्य की पहचान भी उनके ज्ञान एवं विकास के ला आधार पर ही की जा सकती है, जाति, वर्ण, भाषा आदि के आधार पर नहीं । सभी जीवों में चेतना और आत्मा समान रूप से विद्यमान है, तथापि उसका विकास सभी ८ जीवों में समान नहीं होता। जैन दर्शन में विकास के आधार पर जीवों के ५ भेद किए गए हैं-एकेन्द्रिOF यादि । इस प्रकार जीवों में आत्मतत्व की समानता होते हुए भी विकासीय भिन्नता विद्यमान है । यह १ ठाणांग ५ सूत्र ४३३ ४५२ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियां 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International E private ParsonalilsaOnly www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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