SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नि:शब्द थे सभी विद्यार्थी। सभी विस्मयाहत एवं निर्वाक् दृष्टि से उत्पल के मुख की ओर देख रहे थे। उत्पल ने स्वहस्त से अपराधियों को रज्जुमुक्त कर डाला। बन्धनमुक्त होते ही वे उत्पल के चरणों में लोट पड़े। बोले- 'आर्य, आज आपने हमें प्राणदान दिया।' उत्पल के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। उन अश्रुओं को पोंछकर उन्हें ऊपर उठाते हुए कहा- 'कोई भय नहीं है तुम लोगों को। शाक्य सिंह ने सभी जीवों पर करुणा करने को कहा है। उन्हें लेकर उत्पल स्थविर के सम्मुख उपस्थित हुआ। भिक्षुओं की विक्षत देह को देखकर स्थविर के कपोलों पर अश्रुधारा बह चली। उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए बोले- 'तुम लोगों का अपराध शान्त हो गया है, बुद्ध ने तुम पर करुणा की है।' भिक्षुगण स्थविर के चरणों में नतमस्तक हो गए। बोले- 'भदन्त ! किन्तु संशय नहीं मिट पा रहा है, आलोक तो दिखाई ही नहीं दे रहा है।' स्थविर उनके मस्तक पर स्वहाथ रख कहने लगे- 'संशय क्या मिटेगा? अनुतप्त हृदय से यदि प्रकाश नहीं दिख पड़ा तो फिर क्या दिखेगा?' __मध्याह्न हो चला था। सूर्य मस्तक पर आ चुका था। किन्तु प्रथम प्रभात का जो सूर्य एकबार दिखाई पड़ा वह पुन: नहीं देखा गया। प्रकृति का वह निस्तब्ध भाव जैसे समाप्त ही नहीं हो रहा था, उसी भांति सूर्य मुख पर का आवरण भी नहीं उठ रहा था। फिर भी मध्याह्न होने पर भिक्षु एवं विद्यार्थियों का भय कम हो चला था। वे सोचने लगेनिश्चित मृत्यु जैसे उन सब पर एक व्यंग्य कसकर चली गई। अत: अब तक जिस दैनन्दिन कार्य को वे भूल गए थे उसी के अनुष्ठान में प्रवृत्त हो गए। कोई चैत्य संस्कार में लग गया, कोई जल लेने गया, कोई अन्न प्रस्तुत करने पाकशाला में प्रविष्ट हुआ। उत्पल को तो अब कुछ करने को था ही नहीं, आज का दिन अध्ययन विरति का था। अपने कक्ष में आकर पातिमोक्ष के पृष्ठ खोलकर बैठ गया। खोलकर तो बैठ गया, किन्तु किसी भी प्रकार उसमें मनःसंयोग न कर सका। आज प्रभात से ही जो कुछ घटित हुआ उसकी छायाकृति उसकी आंखों में तैर रही थी। उत्पल सोच तो वही सब रहा था किन्तु उस भावना का कोई निर्दिष्ट क्रम नहीं था। पर्वत से उतरते समय निर्झरिणी का जल जिस प्रकार उपलखण्ड के आघात से बिखर कर इधर-उधर विक्षिप्त-सा छिटक पड़ता है ठीक ऐसी ही स्थिति में थीं उसकी भावनाएं नहीं हुआ है। तभी अचानक सुभद्र की बात उसे स्मरण हो आई। ठीक ही तो है देह परित्याग के पूर्व भी तो मनुष्य इसी प्रकार अहरह मर रहा है। यही तो यथार्थ मृत्यु है। जिसे मृत्यु कहते हैं वह तो है उत्तरण। तब? मृत्यु भय ही है मृत्यु। जिसे मृत्यु भय नहीं वही अमर है। अमर होकर भी मनुष्य न जाने क्यों अपने अमृत-तत्व को भूल गया है। भूल गया है तभी तो मानव सामान्य भय से सामान्य क्षति से हिंस्र हो उठता है। आघात करता है, पीड़ित कर उल्लसित होता है। फिर सौमिल की बात याद हो आई। क्या सौमिल अब घर लौटेगा? नहीं लौटेगा तो फिर क्या करेगा? उसी ने तो उसे संघ से निर्वासित किया है। तब क्या वह जन्म-मृत्यु के स्रोत में फिर एक बार प्रवाहित होगा? कहां है उसका आश्रय ? निराश्रय के लिए ही तो है आश्रय। भाग्य-विडम्बिता के लिए ही तो है त्रिशरण मंत्र। इसीलिए तो बुद्ध हैं करुणाधन। वे शान्ता हैं। तब क्या उसने निर्वासन दण्ड देकर भूल की है ? नहीं, नहीं सौमिल संघ को अस्वीकार किया है। सत्य ही तो है जो शान्ता होता है वही तो होता है शास्ता। बुद्ध शास्ता भी हैं और उन्हीं का निदर्शन है यह पातिमोक्ष। उत्पल फिर एक बार पातिमोक्ष पढ़ने की चेष्टा करने लगा...। पर कहां कर पाया मन:संयोग। सहसा उसके मन में आया दया और करुणा एक नहीं है। दया में ममत्व है, करुणा निर्मम है। दया के उद्रेक का कारण दूसरे की परिस्थिति में स्वयं को भांपना है। किन्तु करुणा ऐसी नहीं है। करुणा अन्य की वेदना को अपनी ही वेदना समझती है। उस समय सत्व-सत्व में पार्थक्य नहीं रहता। तुम्हारा दुःख है, मेरा दुख है तुम्हारा सुख मेरा सुख। वह सुख जरा-सा नहीं बहुत विशाल है। तभी यदि तुम्हारे कल्याण के लिए तुम्हें दुःख देना पड़े तो दे सकते हैं। उस समय वह दुःख तुम्हें नहीं स्वयं को ही दिया जाता है। तभी तो शान्ता उस समय शास्ता है जबकि दण्ड ही कल्याण है। उत्पल ने जब सोचा दण्ड ही सौमिल के लिए कल्याणकारी है तब उसके हृदय से एक गुरुतर भार जैसे उतर गया। उसका समस्त अन्त:करण बोल उठा— 'सौमिल, मुझे तुमसे प्रेम है, मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूं। तभी तुम्हें दण्ड देने का अधिकार रखता हूं। तुम्हें दण्ड दिया है।' उत्पल की भावना ने फिर एक नवीन पथ पकड़ा। अब वह विहार के विषय में सोचने लगा कि यह विहार आज जिस अवस्था में है यह अवस्था उसकी पहले नहीं थी। एक समय यह अत्यंत समृद्ध था। उन दिनों देश-विदेशों से अर्थ आता था। केवल अर्थ ही नहीं तब दूर-दूरान्तरों से ज्ञानान्वेषियों का दल भी आता था। उनके अध्ययन-अध्यापन ने विहार को एक विशेष मर्यादा दी थी। ...पर आज कहां है वह ज्ञानान्वेषियों का दल ? कहां है नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबन्धु, दिगनाग, धर्मपाल, शीलभद्र, धर्म कीर्ति, शान्तरक्षित ? केवल उनकी धारा को वहन करने के लिए है स्थविर मुदितभद्र। तो क्या अब कोई आशा नहीं है? क्या नालन्दा अपना हतगौरव पुनः प्राप्त नहीं करेगा? तथागत का धर्म गौरव क्या सचमुच ही अस्तमित हो रहा है ? कौन जाने क्या है? उत्पल इसका कारण अनुसन्धान करने लगा। सोचने लगा-राजाओं की वीतश्रद्धा ही क्या इसका कारण है या विधर्मी तुर्कों का आक्रमण ? __ वह सोच रहा था वृद्ध भिक्षुक के विषय में कि उन्हें ही मृत्यु का समधिक भय क्यों? अभी भी उनकी दृष्टि में पृथ्वी उतनी ही तरुण एवं आकाश उतना ही नीला है? यदि ऐसा नहीं है तो पृथ्वी का परित्याग करने में उनका हृदय व्यथा से, द्रावक रस से क्यों भर उठा? शास्त्र कहते हैं जीर्ण वस्त्रों की भांति ही एक दिन इस शरीर को छोड़ देना होगा। ओह, इसके लिए इतना ममत्व! ममत्व ? ममत्व ही क्या परिग्रह नहीं? क्या भगवान तथागत ने ममत्व का परित्याग करने को नहीं कहा है ?व्यर्थ ही ये भिक्षु हुए हैं? अभी तक तो उनका देह-ममत्व भी दूर हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / १०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy