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________________ का परित्याग करें!' उत्पल नतमस्तक होकर नम्र स्वरों में बोला- 'भदन्त! आपका कथन ही सत्य है।' तदुपरान्त वहां से उठकर चला गया। स्थविर पुन: धम्मपद पाठ में निमग्न हो गए। प्रकोष्ठ के बाहर आकर उत्पल फिर एक बार आकाश की ओर देखने लगा। देखा— ताम्रवर्ण सूर्य पर धूम्रवर्ण मेघ का एक सूक्ष्म आवरण आया हुआ है। सूर्य स्पष्टत: नहीं दिख रहा था। किन्तु प्रकृति का निरुद्ध भाव था उसी प्रकार अव्याहत। सोपान श्रेणी अवरोहण कर उत्पल भिक्षु एवं विद्यार्थियों के मध्य उपस्थित हुआ। सूर्य के ताम्रवर्ण को देखकर जो कोलाहल उन लोगों के मध्य उत्थित हुआ वह अब भी स्तब्ध नहीं हुआ था। ___ चैत्य भित्ति का आश्रय लिए कुछ दूरी पर खड़े एक वृद्ध बोल रहे थे– 'क्या बुद्ध हमारी रक्षा करेंगे? त्रिशरण मंत्र रक्षा करेगा?' मृत्यु भय में उनका मुख उदग्र हो उठा था। उत्पल को लगा इन वृद्ध को ही सबसे अधिक मृत्यु भय है। विद्यार्थियों के मध्य से उत्पल वृद्ध की ओर अग्रसर हुआ। फिर उनके हाथों को धारण करता हुआ बोला'आर्य, धैर्य का अवलम्बन लें। यदि आप ही धैर्य खो बैठेंगे तो इन्हें सान्त्वना कौन प्रदान करेगा?' विस्मित दृष्टि से वृद्ध उत्पल के मुख की ओर देखने लगे। कुछ कहने जा ही रहे थे कि बोलने का सामर्थ्य न पाकर धरती पर बैठ गए। स्कंध पर पड़ी संघटिका स्खलित होकर धूल में लोटने लगी। पर वृद्ध का ध्यान उधर नहीं था। एकदम विह्वल हो गए थे वे। वृद्ध को धैर्य बंधाना व्यर्थ समझ उत्पल वहां अपेक्षा न कर सका। छोटे-छोटे स्तूपों से होकर प्रधान चैत्य की ओर अग्रसर होने लगा। कुछ दूर भी नहीं जा पाया कि उत्पल की दृष्टि मुंह के बल धरती पर गिरे हुए सुभद्र पर पड़ी। उसे इस स्थिति में देखकर भी किसी ने भी वहां दृष्टिपात नहीं किया। बल्कि पांवों से स्पर्श करते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे। मुहूर्त मात्र का भी विलम्ब न कर उत्पल ने उसे उठाकर बैठाया। फिर झकझोर कर पुकारते हुए बोला- 'सुभद्र!' किन्तु सुभद्र प्रकृतिस्थ न हो सका। उसने अपने विस्फारित नेत्रों की दृष्टि उत्पल के मुख पर निबद्ध कर दी। उत्पल उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगा'क्या हुआ सुभद्र ? सूर्य देखकर डर गए हो?' 'इतनी देर तक सुभद्र सोच रहा था वह मर गया है किन्तु, अब, जब देखा वह मरा नहीं है उसका साहस धीरे-धीरे लौट आया। वह उत्पल की ओर देखकर बोला- 'हां आर्य, मैं भयभीत हो गया हूं।' उत्पल सस्नेह उसकी पीठ पर पुन: हाथ फेरते हुए बोला- 'भय ? मरने का क्या भय सुभद्र ? तुमने उपसम्प्रदाय ग्रहण नहीं की है?' सुभद्र इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दे सका। केवल उत्पल के मुख की ओर देखकर बोला- 'हां आर्य!' ठीक इसी समय एक दूरागत कोलाहल सुनाई पड़ा। उत्पल झटपट उठकर खड़ा हो गया। देखा, विद्यार्थीगण किसी को लिए उसी ओर ही आ रहे थे। भीड़ निकट आने पर उत्पल ने देखा वे लोग दो भिक्षुओं को रज्जुबद्ध कर घसीटते हुए वहि कार की ओर लिए जा रहे थे एवं उन्हीं को केन्द्र बनाकर सबके सब चीत्कार कर रहे थे। ___ उत्पल उसी भीड़ को चीरता हुआ भिक्षुओं की ओर बढ़ने लगा। जिस विद्यार्थी ने रज्जुबन्धन पकड़ रखा था वह उनसे कह रहा था-- 'तुम लोगों के पाप से ही आज विहार का अन्तिम दिन उपस्थित हुआ है। मृत्यु आसन्न हो गए हैं हम सभी। किन्तु एक साथ मरने का सौभाग्य तुम्हें नहीं देंगे। शायद इसी से तुम्हारे पाप का कथंचित प्रायश्चित हो सके। विहार की उत्तर सीमा पर जो विशाल गह्वर है उसी में हम तुम्हें फेंक देंगे प्राकार से। तुम्हारी उन विचूर्ण अस्थियों में से शकुनि एवं शृगाल मांस नोच-नोचकर भक्षण करेंगे।' ठीक उसी समय उत्पल भिक्षुओं के निकट पहुंच गया था। उसे गतिरोध करते देख सभी विद्यार्थी स्थिर हो गए। बोले- 'संघागारिक आप?' जो विद्यार्थी यह सब कह रहा था उसका भी वाक्य स्रोत सहसा निरुद्ध हो गया। उत्पल की दृष्टि उसी क्षण आलिन्द पर जा पड़ी। देखा- आलिन्द पर खड़े स्थविर कुछ कह रहे थे। किन्तु उनका कथन किसी के भी कानों में नहीं पहुंच रहा था, उत्पल के भी नहीं। ...पर वे क्या कह सकते हैं यह अनुमान करना उसके लिए कठिन नहीं था। अत: विद्यार्थियों को स्तब्ध होते देख उत्पल बोला- 'उत्तम! मैं संघागारिक और तुम लोगों का शिक्षक हूं। मैंने तुम लोगों को जो शिक्षा दी क्या यह उसी की परिणति है? उद्गत क्रोध चल मान रथ की भांति होता है जो उसे संहत कर सकता है उसी को मैं सारथी कहता हूं। अन्य तो मात्र रज्जु ही धारण किए होते हैं।' ___'आर्य! आपकी बात सत्य है, परन्तु इनका अपराध भी तो गुरुतर है।' उत्पल बोला- 'यह मैं जानता हूं, किन्तु सौमिल, तुम्हारा अपराध भी कम नहीं है। अपराध के लिए दण्ड दे सकता है केवल संघ और कोई नहीं।' सौमिल एवं अन्यान्य सभी विद्यार्थी परस्पर एक दूसरे का मुख देखने लगे। ___ उत्पल कह रहा था- 'बाल सुलभ चंचलतावश उस दिन इन्होंने संघ नियम के विरुद्ध अविनीत कार्य किया था। ...पर क्या संघ ने पाति मोक्ष के अनुसार इन्हें दण्ड नहीं दिया? यदि दिया तो फिर आज नवीन दण्ड की वार्ता क्यों चल पड़ी?' यह कहते-कहते उत्पल का कण्ठ-स्वर कुछ कठोर हो गया। उत्पल कुछ रुककर पुन: कहने लगा'सौमिल ! मैं संघागारिक हूं। संघ ने जिस प्रकार हमें दण्ड देने की क्षमता स्थविर को प्रदान की है उसी प्रकार विद्यार्थियों को दण्ड देने की क्षमता मुझे प्रदान की है। इन्होंने संघ नियम के विरुद्ध अविनय प्रकट किया... पर तुमने तो संघ को ही अस्वीकार कर दिया। और संघ को अस्वीकार करने का एक मात्र दण्ड है— बहिष्कार। अत: तुम बुद्ध की पवित्र भूमि से निर्वासित हुए। आज सन्ध्या के पूर्व ही तुम विहार का परित्याग करो।' हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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