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________________ रासस तुर्कों ने इस विहार पर्यन्त को दग्ध कर डाला था। भिक्षुओं की नृशंस हत्या की थी। तब यही कारण हो सकता है। फिर भी यही एक कारण नहीं है। तब क्या है?' उत्पल पुन: मुदितभद्र की बात सोचने लगा। विहार ध्वंस कर जब तुर्क चले गए थे तब उन्होंने विहार एवं चैत्य का संस्कार करना प्रारम्भ किया था। उस दिन मुट्ठी भर भिक्षुओं को लेकर ही वे कार्य-प्रवृत्त हुए थे। अर्थ भी मिला मगध-मंत्री कुक्कुट सिद्ध से। किन्तु, सब कुछ अर्थ से ही नहीं होता। नवीन रूप से विहार निर्माण में उन्हें अपरिमेय परिश्रम करना पड़ा। उनके परिश्रम का ही तो प्रतिरूप है यह विहार। फिर तो विभिन्न स्थानों के भिक्षुओं एवं विद्यार्थियों का समागम भी होने लगा था। पर... उत्पल सोचने लगा- 'लगता है इस क्षेत्र में दैव ही प्रतिकूल हैं। मन ही मन वह यह कहे बिना नहीं रह सका। 'अमिताभ! देखना, स्थविरों का प्राणप्रात परिश्रम कहीं व्यर्थ न हो जाए! भगवान तथागत की अभिरुचि।' उत्पल ने पीछे घूमकर देखा। किन्तु कोई दिखाई नहीं पड़ा। शायद यह भ्रान्ति थी। लेकिन उसने स्पष्ट ही तो सुना था जैसे कोई उसके पीछे से बोल रहा था, 'भगवान तथागत की अभिरुचि।' __ उत्पल भित्ति गात्र पर भूमि स्पर्श मुद्रा में उत्कीर्ण बोधिसत्व की मूर्ति की ओर देखता हुआ करबद्ध होकर बोल उठा-'भगवान तथागत की अभिरुचि ही पूर्ण हो।' 'देख रहे हो, देख रहे हो...' बाहर पुन: कोलाहल होने लगा। उसी कोलाहल को लक्ष्य करता हुआ उत्पल बाहर आ खड़ा हुआ। देखा कुछ मेघ अंश हट जाने से सूर्य प्रकाशित हो उठा है। सूर्य क्या था साक्षात् अग्निपिण्ड। उसी समय वे वृद्ध यष्टि पर भार दिए उत्पल के समीप आ गए थे। उत्पल का हाथ स्पर्श करते हुए बोले, 'देख रहे हो, क्या देखा? उनका कण्ठ-स्वर विकृत था। उत्पल बोला- 'सूर्य'। 'सूर्य ? नहीं, मैं तो देख रहा हूं ब्राह्मणगण यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान कर रहे हैं। आज द्वादश वर्ष पूर्ण हो गया है।' उत्पल बिना कुछ उत्तर दिए ही सूर्य की ओर देखता हुआ स्थिर खड़ा रहा। किन्तु सूर्य अधिक देर तक नहीं रहा, पुन: मेघ ने ग्रास कर लिया। जो स्तब्धता समस्त दिन अव्याहत थी वही स्तब्धता मुहूर्त भर के लिए और कठोर हो गई। फिर न जाने क्या हुआ कि समस्त धरती काँप उठी। भू-गर्भ से एक अवरुद्ध गर्जन मरणाहत दैत्य की भाँति आर्तनाद करता हुआ बाहर आया। वृद्ध गिरने ही जा रहे थे कि मानता कृत स्तूप का आश्रय लेकर किसी प्रकार खड़े रहे। सूर्य देखने के लिए भिक्षुगण अपना-अपना कार्य छोड़कर बाहर आ गए थे। इस बार उनके चीत्कार से आकाश-बातास परिपूरित हो उठे। एक क्षण के लिए उत्पल भी हतप्रभ हो उठा। उसे लगा-जैसे पदतल स्थित मृत्तिका निम्नाभिमुख होकर सी जा रही है। स्तूप का भित्तिगात्र काँप रहा है। ...दूर बहिाकार का एक विराट अंश भंग हो रहा है। उसके गिरने की आवाज ने कानों को वधिर कर डाला। उसी स्थान से प्रचुर धूल उत्क्षिप्त होकर चक्कर काटती हुई उसी की ओर अग्रसर हो रही थी। भूमिकम्प का वेग स्थिर होते ही उत्पल स्थविरों के प्रकोष्ठ की ओर चल पड़ा। देखा- सभी अपने-अपने प्राणों की रक्षा में व्यस्त परस्पर एक दूसरे को ढकेलते हुए, गिरे हुए को कुचलते हुए दौड़े जा रहे हैं। कोई आर्तनाद कर रहा है तो कोई त्रिशरण मंत्र उच्चारण कर रहा है। 'थेर।' स्थविर ने मुख उठाकर देखा। बोले 'उत्पल, तुमने बिहार का परित्याग नहीं किया?' उत्पल बोला, 'थेर! मैं आपको लेने आया हूं।' स्थविर हंस पड़े, बोले, 'कहां ले जाओगे उत्पल?' और द्विगुण वेग से भूमिकम्प प्रारम्भ हो गया। उत्पल सोचने लगा'ठीक ही तो है जब पृथ्वी ही आज क्षिप्त है तब आश्रय कहां?' ___ स्थविर उत्पल के मुख की ओर देखकर बोले, 'तुम जाओ उत्पल, मैं स्थान त्याग नहीं कर सकता।' उत्पल हाथ जोड़कर कहने लगा'थेर! ऐसी अनुमति मत दीजिए।' ___ स्थविर पुन: एकबार उत्पल के मुख की ओर देखने लगे। फिर धीरे से बोले- 'उत्पल, मैं तुम्हारा आचार्य हूं। मेरा आदेश है, तुम प्रकोष्ठ परित्याग कर इस स्थान की अपेक्षा निरापद स्थान पर चले जाओ।' उत्पल ने स्थविर के आदेश की उपेक्षा जीवन में कभी नहीं की थी पर आज उनकी आज्ञा को भी अवहेलित सा कर रहा था। किन्तु, सहसा जो कुछ उसे दृष्टिगत हुआ उससे वह स्थिर न रह सका। उसने जो कुछ देखा वह एक भयंकर दुःस्वप्न की भांति था। उसकी समस्त देह जैसे जमकर हिम हो गई। देखा-विहार का विशाल पुस्तकालय 'रत्नोदधि' जिस ओर था वहां से प्रचुर धूमपूंज पर लपकती हुई अग्नि-शिखा मुंह बाएं धांय-धांय कर रही थी। दीर्घ संचित ज्ञानराशि की जो कुछ रक्षा हो सकी थी वह भी आज समाप्त होने जा रही थी। क्या उसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं ? उत्पल अन्धवेग से उसी ओर दौड़ पड़ा। यद्यपि बार-बार उसके चरण स्खलित हो रहे थे फिर भी भागा जा रहा था। देखा- भिक्षुगण उस समय भी विभ्रान्त की भांति पथ भ्रष्ट होकर इधर-उधर दौड़ रहे थे। 'सुभद्र।' सुभद्र उस समय भित्तिगात्र की बुद्ध मूर्ति के सम्मुख घुटने टेक कर ___ बैठा प्रार्थना कर रहा था। कह रहा था 'रक्षा करो वज्रपाणि, रक्षा करो।' प्रचण्ड वेग से उत्पल ने उसे अपनी ओर आकृष्ट किया। बोला'नहीं देख रहे हो भित्तिगात्र कांप रहा है। किसी भी क्षण वह गिर सकता है। बर्हिद्वार की ओर जाओ।' फिर सुभद्र ने क्या किया यह देखने को वह रुक न सका। बस उसी अग्नि को लक्ष्य करता हुआ दौड़ने लगा। एक मुहूर्त के लिए उत्पल पुन: एकबार खड़ा हुआ। सुना, जैसे कोई कह रहा था- 'मैं जानता हूं वेनु, विहार का ऐश्वर्य कहां रक्षित है? कौन देख रहा है? चल न, अपने उसी ऐश्वर्य को बांट लें। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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