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________________ ७०५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड वास्तविक अर्थ के बोध करने में बड़ी उलझन उपस्थित होने लगी। जैन पाठशाला में चालू पाठ्यक्रम में जैन धर्म विषयक छपे हए ग्रंथ छहढाला, द्रव्यसंग्रह, रत्नकरंडश्रावकाचार, मोक्षशास्त्र आदि ग्रन्थों के पढ़ाने में बाबाजी के इस आदेश का प्रतिबन्ध नहीं लगा था। इसको मैंने छात्रों का और अपना शुभ भाग्योदय ही माना था। क्षुल्लक महाराज के इस आदेश से छपे शास्त्रों के अध्ययन में आई हुई बाधा के कारण बाबाजी (गोकुल प्रसादजी) के ज्ञान-पिपासु मन में बहुत ही खिन्नता हुई। इसे कम करने के लिये आपने तीर्थयात्रा की बात सोची । आपके इस विचार के पता लगने पर आप के परम स्नेही बन्धु स० सिं० कन्हैयालालजी ने इसकी अनुमोदना करते हुए इस यात्रा में होने वाले सम्पूर्ण व्यय का भार बिना मांगे हुए ही वहन कर लिया। बस, फिर क्या था, अपनी एकमात्र पूंजी बालक जगन्मोहन को साथ में लेकर आपने यात्रार्थ प्रस्थान कर दिया। आपने अनेक तीथों की बंदना करते हुए सन् १९११-१२ में परमपूज्य श्री गोमटेश्वर भगवान् के पादपद्मों के दर्शन करके नरभव को सफल बनाया, तदनंतर यहाँ से चलकर आसपास के क्षेत्रों में विद्यमान भव्यजनों को आत्मबोध कराने वाले श्री जिनबिम्बों के दर्शन करते हए आप बेलगाँव में आये। संयोग की बात थी कि इस अवसर पर श्री दक्षिण प्रांतीय दिगम्बर जैन सभा का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिये स्वागत कारिणी समिति ने अपने प्रांत की जैन जनता से सन्माननीय निर्भीक स्पष्टवक्ता, जैनधर्म की प्रभावना बढाने में कटिबद्ध रहने वाले उदार पंडितप्रवर पंडित गोपालदासजी वरैया को नियत किया था। इस अधिवेशन - में सम्मिलित होने के लिये कटनी से जाने वाले स० सिं० रतन चन्दजी तथा अन्य सज्जनों के साथ मेरा भी वहाँ पहुँचना हुआ था। अधिवेशन का सम्पूर्ण कार्य निर्विघ्नतापूर्वक आनन्द से सम्पन्न हआ। सभाध्यक्ष पद से दिये हए भाषण से सर्वसाधारण जनता को संतोष हुआ, विद्वानों को अनेक सैद्धान्तिक गुत्थियों को सुलझाने का लाभ मिला। इस अधिवेशन में उत्तर तथा मध्य भारत के अनेक धीमान् और श्रीमान् जैनबन्धु पधारे थे। कटनी से गये हुए हम सब बन्धुओं को उस समय बड़ा हर्ष हुआ जब बेलगाँव में अपने श्रद्धा-भाजन बाबा गोकलप्रसाद जी को आत्मज जगन्मोहन सहित देखा । आप तीर्थों की यात्रा करते हुए सकुशल वहाँ पधारे थे। अधिवेशन समाप्त होने पर हमारी मंडली वहां से चलकर बम्बई होती हुई कटनी को वापिस आ गई और साथ में बाबाजी को आग्रह करके साथ में लिवा ले आई। श्री १०५ पूज्य छुल्लक पन्नालालजी के जाने के पश्चात् कटनी में श्री १०५ पूज्य ऐल्लक पन्नालालजी महाराज का शुभागमन हुआ, आपने सम्यग्ज्ञान के प्रसार में परम सहायक होने वाले शास्त्रों का छपे हए होने मात्र से निषेध करने के दिये हुए छुल्लक महाराज के आदेश को अहितकर कहा और खेद प्रकट किया तथा छपे शास्त्रों को मंदिर जी में रखने तथा उनके पठन-पाठन करने की आज्ञा प्रदान की। ऐल्लक महाराज के आने के समय बाबा गोकल प्रसादजी कटनी से यात्रार्थ चले गये थे। बेलगाँव से आने पर बाबाजी ने अपनी स्वाध्याय कक्षा पुनः चाल कर दी। कुछ समय पश्चात् कटनी में प्लेग का प्रकोप होने से नगरनिवासियों को बाहिर जाना पड़ा, रोग शमन होने पर जब हम लोग नगर में आये, तब पुन: स्वाध्याय कक्षा चाल हो गई । यद्यपि बाबाजी का कटनी में अपने सुहृद स: सि कन्हैयालाल जी रतनचंदजी द्वारा पूर्ण सुविधाएं होने से मन बिना किसी विघ्न-बाधाओं के सुखपूर्वक धर्मसाधन में व्यतीत हो रहा था, परंतु आपके मन में सदैव ऐसी भावना रहने लगी थी कि कभी ऐसी सुविधा प्राप्त हो जाय कि किसी तीर्थक्षेत्र में अपने ही समान उदासीन दृत्ति वाले मुमुक्षु, त्यागी, ब्रह्मचारी भव्यजनों के समागम में स्नेह का लाभ प्राप्त होने लगे। उस समय आज कल के समान उदासीन आश्रम नहीं थे। आप इसी अवसर पर श्री अतिशय क्षेत्र कुंडलपुर में विद्यमान श्री १००८ भगवान् महावीर जी की यात्रा करने के लिये दमोह को गये, और जन सहयोग से आश्रम की स्थापना भी कुंडलपुर में की। दैवयोग से कुछ समय बाद सागर से न्यायाचार्य पंडित गणेश प्रसाद जी का भगवान महावीर जी के दर्शनार्थ आना हुआ और दमोह में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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