SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अतिशय क्षेत्र कुंडलपुर में स्थित श्री जैन उदासीन आश्रम के संस्थापक ७१ बाबाजी से भेंट हई। पंडित जी ने ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने की अपनी अभिलाषा आपसे प्रकट की। यह सुनकर आप को बड़ा हर्ष हआ, ज्ञानोपार्जन करके उसके प्रसार में तन-मन से दत्तचित्त पंडितजी के मन को व्रत पालन की ओर आकर्षण बाबा जी के लिये परम प्रमोद का कारण था। बाबा जी के प्रति आचरण में सम्यक चारित्र की वास्तविकता की झलक देखकर पंडित जी ने आपसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और श्री १००८ परमपूज्य भगवान् के बिम्ब के आगे बाबा जी से ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। ज्ञान प्रसाद के सत्प्रयत्न में अहर्निश प्रयत्नशील महाविद्वान् इस युवक को चारित्र पथारूढ़ करके बाबा जी कटनी को लौट आये। बाबा जी की मनोगत कामना को स्फूति प्राप्त हुई। आप का मुझपर प्यार के सिवाय विश्वास भी था। अतएव आपने मुझसे अपनी हार्दिक अभिलाषा कह सुनाई। साथ ही यह भी कहा कि उदासीनाश्रम के उपयुक्त इस क्षेत्र में कुंडलपुर अतिशय क्षेत्र है। बस, फिर क्या था, आश्रम की वृद्धि के लिए योजना तैयार की गई, साथ ही कटनी की जैन पाठशाला के जैन छात्रावास में, जिसकी स्थापना सन् १९१३ में पूज्य वर्णी जी ने की थी, रहने वाले छात्रों के भोजन आदि की व्यवस्था के लिए शाला के परम हितैषी स० सिं० रतनचन्द और मैं, ग्रीष्म काल के एक माह के अवकाश में देवरी, सिहोरा, पनागर, उमरिया, शहडोल, अकलतरा और राजनादगाँव आदि स्थानों में डेपूटेशन रूप में जाते थे और इस भ्रमण में लगभग बाहर सौ रुपयों की सहायता प्राप्त कर लाते थे। इग्र भ्रमण में हमें जगदलपुर (बस्तर स्टेट) निवासी श्री मुन्नालाल करोड़ेलालजी, दीपचन्दजी आदि से भी सहायता प्राप्त होती थी। आश्रम की उन्नति की योजना बन जाने पर इस वर्ष बाबा जी और मैं जगन्मोहन को साथ लेकर भ्रमणार्थ निकले। घर में आवश्यक कार्य के कारण रतनचंद जी का जाना नहीं हो सका। सहायता प्राप्त करके हमारी मण्डली कटनी वापिस आ गई। मुझे उस समय इस बात की कल्पना नहीं थी कि हमारे साथ में संस्था की सहायता के लिए निकला पाठशाला का यह बालक विद्यार्थी आपना भविष्य जीवन, अपनी ज्ञानदात्री जन्मी इस जैन पाठशाला की सेवा में ही बितायेगा। चंदा करके वापिस आने पर मैंने सं० सिं० कन्हैया लाल जी से बाबा जी की भावना कह सुनाई। इसे सुनकर वे बोले कि भैया का विचार तो अच्छा है, अच्छा होवे कि ये यहाँ ही रहकर त्यागी व्रती भाइयों को बुला लें और हमको उनकी सेवा सुश्रूषा करने का अवसर देवें और शुभ दान में योग देने की सुविधा प्राप्त कराकर हमको पुण्य का भागी बनावें । यह सुनकर मैंने उनसे कहा कि आपकी उदारता तथा शुभ भावना का बाबा जी को पूर्ण परिचय है। आपका उनके प्रति जो अगाध वात्सल्य है, जिसे भी वे खूब जानते हैं, परन्तु इस स्थान की अपेक्षा वे इस महत्वपूर्ण संस्था के लिए कुंडलपुर क्षेत्र को अधिक उपयुक्त समझते हलपुर क्षेत्र को अधिक उपयुक्त समझते हैं। सिं० जी ने बाबा जी के इन विचारों को सुनकर मुझसे कहा कि हमारी ओर से उनसे कह दो कि वे अपनी इच्छानुसार कार्य करें और अपने मनुष्य जीवन को धर्म-साधन में व्यतीत करें। रही जगन्मोहन की बात, सो इसके लिए हम पहले ही कह चुके है कि वे इसके भरण-पोषण, विद्याध्ययन, विवाह आदि की चिन्ता छोड़कर इससे निःशल्य हो जावें। हम चारों भाई इसे पुत्रवत् मान रहे हैं और आगे भी मानते रहेंगे। इनके पास अभी जो कुछ गहना आदि है, इसे भी ये आश्रम के भण्डार में जमा कराकर निःशल्य हो जावें। हमसे जहाँ तक बनेगा, इनके भविष्य जीवन में भी इनकी यथाशक्ति वैयावृत्ति करते रहेंगे। मुझसे सिं० जी के ये विचार सुनकर बाबा जी को परम संतोष हआ। अब इन्होंने उदासीन आश्रम में रहने के लिए, त्यागी-व्रती भाइयों की खोज करने के लिए प्रस्थान किया। ये कटनी से दमोह पधारे और वहाँ की जैन समाज के सन्मुख अपनी इच्छा प्रकट की। इसकी समाज ने हृदय से अनुमोदना करते हुए सराहना की और श्री कुंडलपुर क्षेत्र में खोले गये इस आश्रम की व्यवस्था का भार वहन करने का वचन भी इनको दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy