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________________ जैन शिक्षा-संस्थापक और संचालक ६७ सन् १९२३ में पं० जगन्मोहन लाल जी कटनी आकर संस्था में अध्यापन करने लगे परन्तु उन्होंने कोई वेतन, या अपने निर्वाह के लिए कोई खर्च कभी भी शिक्षा-संस्था से नहीं लिया। सन् १९३० तक तो, नियमित अध्यापक होते हुए भी, संस्था के वेतन रजिस्टर में पण्डित जी का नाम तक नहीं था। इसके बाद जब एक बार जिला शाला निरीक्षक ने उनसे अनुरोध किया कि यदि आपका नाम वेतन रजिस्टर पर रहेगा तो उस राशि पर भी शासकीय अनुदान मिलेगा और संस्था की भलाई होगी। आप नाम न देकर संस्था की हानि करा रहे हैं । तब पण्डित जी ने संस्था के वेतन रजिस्टर पर अपना नाम लिखने की अनुमति दी। परन्तु अपना वेतन या खर्च वे हमेशा सिंघई जी के पारिवारिक ट्रस्ट से ही लेते रहे। पण्डित जी द्वारा स्वीकार की गई इस राशि ने कभी ट्रस्ट की आय की उनके लिये निर्धारित सीमा को पार नहीं किया। उससे कुछ कम, ३/४ या ४/५ राशि में ही वे अपना काम चलाते रहे। कालान्तर में उनके पुत्र व्यवसाय में अग्रसर हुए और अब एक सम्पन्न-सुखी परिवार के रूप में व्यवस्थित हैं। मैं समझता हूँ कथा की इस शृंखला के सभी पात्र अपने आप में ऐसे महान् रहे जो आज समाज के किसी भी वर्ग या व्यक्ति के लिये आदर्श उदाहरण हो सकते हैं । पण्डित बाबू लाल जी अपनी लगन के पक्के और विद्या-प्रसार के प्रति गहन-निष्ठा वाले व्यक्ति थे। स्वर्गीय सिंघई बंधु वात्सल्य-पूरित, उदार और दूरदर्शी महापुरुष और हमारे गुरु जी पण्डित जगन्मोहन लाल जी एक ऐसे साधक हैं जिन्होंने समाज के अंधकार-आवेष्ठित कोनों तक ज्ञान का प्रकाश पहुँचाने में अपना पूरा जीवन ही लगा दिया। ऐसे शुभानुध्यायी व्यक्तित्व सदैव समाज की संस्तुति और श्रद्धा के पात्र रहे हैं । समाज को उनसे दीर्घकाल तक प्रेरणा मिलती रहेगी, ऐसी आशा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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