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________________ ६२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड स्व० सिंघई तोड़लमल जी कटनी के प्रख्यात पंच थे। उन्होंने समाज के सहयोग से कटनी में एक जिन मंदिर बनाया। अन्त समय वे बहुत पीड़ित व दुःखी थे। मुझे बुलाया, मेरे समझाने पर वे आश्वस्त हुए और दो मकानों का दान घोषित कर शांति से जीवन सुधार कर मृत्यु को वरण किया। उनके दो भाई थे। दोनों दिवंगत हो चुके थे। दोनों की धर्मपत्नी ने उनके दान का एक ट्रस्टडीड लिख दिया जो सि० तोडलमल कन्हैयालाल जैन परमाथिक ट्रस्ट के नाम से आज भी अच्छे रूप में संचालित है। कटनी के उस मंदिर के लिये, बिलहरी के प्राचीन मंदिरों के जोर्णोद्धार में, जिनवाणी प्रचार व तीर्थ रक्षा में इसका आज भी महत्वपूर्ण स्थान है। आज ट्रस्ट की यह संपत्ति करीब १५ लाख की है। स. सिं० कन्हैयालाल गिरधारी लाल जी ने भी अपने अनुज श्री रतन चंद जी, दरवारीलाल जी, परमानन्द जी के सहयोग से कन्हैयालाल रतन चंद जैन शिक्षा ट्रस्ट की स्थापना की तथा उनके सुपुत्रों ने धन्य कुमार अभय कुमार जैन शिक्षा ट्रस्ट की स्थापना की। दोनों ट्रस्ट क्रमश; सन् १९१५ और १९४४ में बने । कटनी जैन संस्थाओं में इन ट्रस्टों का महत्वपूर्ण योग रहा है । सभी ट्रस्ट तीन लाख के हैं । संस्कृत भाषा और जैन धर्म की शिक्षा इन ट्रस्टों का मुख्य उद्देश्य है । इसकी पूर्ति हेतु जो संस्थाएँ दि० जैन समाज में स्थापित हैं, उनको भी यथासमय ये ट्रस्ट सहयोग दे रहे हैं। स० सिं० कन्हैयालाल जी ( दादाजी ) ने अपने जीवन काल में अपनी पूरी जायदाद - की एक वसीयत बना दी थी जिससे उनकी पुत्रियों, परिवार, मन्दिर और धार्मिक संस्थाओं का पोषण होता है । इस टस्ट द्वारा जैन धर्मशाला के निर्माण में एक लाख रुपयों का योगदान किया है। अपनी इस वसीयत की प्रापर्टी आज २.९२५ लाख कीमत कटनी जैन मंदिर तिवरी वालों के मंदिर के नाम से प्रख्यात है। मूल नायक भगवान चंद प्रभू है । इसकी ओर से साहित्य प्रकाशन भी होता है । इन सभी संस्थाओं और ट्रस्टों के निर्माण में व संचालन में मैंने शक्त्यनुसार अपना योगदान दिया है। मेरे पिता जी ने सन् १५ में मुझे पांच अणुव्रत दिये थे। उसके बाद परमपूज्य श्री १०८ आचार्य शांति सागर जी से मैंने सन् १९२८ में द्वितीय प्रतिमा के व्रत लिये और सन् ७६ में श्री १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी से सप्तम प्रतिमा के व्रत लिये। उनका कटनी में पदार्पण हुआ था। कटनी में और भी छोटी-मोटी संस्थाएं स्थापित है, संचालित है । यहाँ मुझे उनका सांनिध्य प्राप्त हुआ। कुंडलपुर क्षेत्र का मैं ६ वर्ष अध्यक्ष रहा। सन् ७६ में वहाँ मेरे अध्यक्ष काल में ऐतिहासिक गजरथ पंचकल्याणक हुए। कुछ सज्जन इसके विरोध में भी थे। उनके द्वारा सामाजिक तथा अदालती बाधाएँ भी इस कार्य में आई पर अपने सहयोगियों के सहयोग से और जिन धर्म के प्रभाव से सर्व काम निर्विघ्न हए । स० सि० कन्हैयालाल गिरधारी लाल जी आदि पूरे सिंघई परिवार का मुझे जीवन भर सहारा मिला। उनके कारण ही मुझे कटनी संस्था की आर्थिक सहायता मिली जिससे सेवा का अवसर मिला। मेरा सभी खर्च उन्होंने स्वयं तथा अपने ट्रस्ट द्वारा वेतन के रूप में दिया । जैन समाज में किसी विद्वान् को उसके जीवन भर इस प्रकार के खर्च का संभवतः यह एक ही उदाहरण है। अब मेरी आयु का ८८वा वर्ष चल रहा है। मैं १२ साल से सभी कार्यों से निवृत्त हो कुंडलपुर क्षेत्र स्थित उदासीन आश्रम में रहकर अपना जीवन धर्म साधनापूर्वक व्यतीत कर रहा हूँ। मेरी सामान्य जीवनकथा उक्त प्रकार है। यद्यपि और भी अनेक घटनायें हैं, तथापि उन सबका संनिवेश यहाँ नहीं कर रहा हूँ। अपने स्नेहियों के अत्याग्रह से उक्त पंक्तियाँ लिखी गई हैं। मेरे प्रारंभिक विद्यागुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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