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________________ कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान डा० यशवन्त मलैया कोलराडो स्टेट विश्वविद्यालय, फोर्ट कोजिस (यू० एस० १०) पिछले दो सौ वर्षों के अनुसन्धान से भारतीय इतिहास की बहुत सी समस्यायें सुलझी हैं। नालन्दा, श्रावस्ती, तक्षशिला आदि स्थानों को निश्चित रूप से पहिचान लिया गया है। फ़िरोज़शाह जिस स्तम्भ के लेख को पढ़ सकते वाला दूंढ नहीं सका, वह आज बिना किसी सन्देह के पढ़ा जा सकता है। कई समस्यायें ऐसी हैं जिनका व्यापक अध्ययन तो हुआ है, पर कोई निर्विवाद हल नहीं मिला है। उदाहरणार्थ कालिदास के समय का निश्चय, गौतमबुद्ध की निर्वाण तिथि, सिंधु-सरस्वती सभ्यता को लिपि की पहचान आदि । यहाँ पर एक ऐसी समस्या पर विचार किया गया है जिसका महत्त्व जैन सामाजिक व धार्मिक इतिहास के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास के लिए भी है। संयोग से इसका समाधान सन्तोषजनक रूप से हो सका है। अलग-अलग स्थानों पर, व अलग-अलग समय के जो सूत्र मिलते हैं. उनके अध्ययन से एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है जिसमें कोई विरोधाभास मालूम नहीं होता । कई प्राचीन ग्रन्थों में गोल्लादेश नाम के स्थान का उल्लेख आता है। आठवीं सदी में उद्योतनसरि द्वारा रचित कुवलयमालाकहा में अठारह देश-भाषाओं का उल्लेख है। इनमें से एक गोल्लादेश की भाषा भी है। ये नाम लक्ष्मणदेव रचित नेमिणाहचरिउ (समय अनिश्चित), पुष्पदन्त रचित नयकुमारचरिउ (दसवीं शती उत्तरार्ध), राजशेखर की काव्यमीमांसा (दसवीं शती पूर्वाध) व रामचन्द्र-गुणचन्द्र के नाट्यदर्पण (बारहवीं शती) में भी दिये हुए हैं। चूणिसूत्रों में भी इस स्थान का उल्लेख है । इस स्थान के उल्लेख बहुत कम पाये गये हैं। कुछ अपवादों को छाड़कर इसका शिलालेखों में भी उल्लेख नहीं है । ऐतिहासिक भूगोल की पुस्तकों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है। इस लेख में इस स्थान की निश्चित पहिचान करने का प्रयास किया गया है। गोल्लादेश की स्थिति पर पहले उहापोह किया गया है। एक विद्वान के मत से यह गोदावरी नदी के आसपास का क्षेत्र है। यह मिलते-जुलते शब्द होने से अनुमान किया गया है। आगे के विवेचन से स्पष्ट है कि यह धारणा गलत है। शिलालेखों में गोल्लादेश के स्पष्ट उल्लेख केवल श्रवणबेलगोला में पाये गये है। इनके अंश आगे दिये गये है। इनमें गोल्लाचार्य नाम के मुनि का उल्लेख है । ये गोल्लादेश के राजा थे व किसी कारण से इन्होंने दीक्षा ले ली थी। मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ऐपिग्राफिका कर्णाटिका ! श्रवणबेलगोला ग्रन्थ में कहा गया है कि इन्हें पहिचानना सम्भव नहीं है। सन १९७२ में अनेकांत में प्रकाशित लेख 'गोलापूर्व जाति पर विचार' में यह सम्भावना व्यक्त की गई थी कि श्रवणबेल्गोला के लेखों में जिस गोल्लादेश का उल्लेख है, यह वही स्थान है जहाँ से गोलापूर्व, गोलालोर व गोलसिंधारे जैन जातियाँ निकली है । प्रस्तुत उहापोह से भी यह सम्भावना सही सिद्ध होती है । यहाँ निम्न प्रश्नों पर विचार किया गया है : १. कुवलयमालाकहा के अनुसार कहां-कहीं गोल्ला देश का होना असम्भव है ? जहाँ-जहाँ इसकी स्थिति असम्भव है, वहाँ छोड़कर अन्य क्षेत्रों में ही इसकी स्थिति पर विचार किया जाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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