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________________ श्रीधर स्वामी को निर्वाण-भूमि : कुण्डलपुर पंडित जगन्मोहनलाल शास्त्री कुंडलपुर अंतिम केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाण-भूमि का नामोल्लेख तिलोयपण्णति, निर्वाण काण्ड आदि में आया है। इन्हीं के आधार पर उक्त निर्वाण भूमि का निर्णय करने का प्रयास कुछ विद्वानों द्वारा पिछले बीस, बाइस वर्षों में किया गया है । इस संबंध के प्रायः सभी शास्त्रीय उल्लेखों को दृष्टि में रखकर तत्सम्बन्धी उपलब्ध लेखों का मनन करके तथा कुछ नवीन उद्घाटित प्रमाणों पर विचार करते हुए इस लेख में भगवान् श्रीधर स्वामी के निर्वाण स्थल पर विचार करते हये मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित प्रसिद्ध और मनोरम क्षेत्र कुण्डलपुर को उनकी सिद्ध भूमि मानने के कारण और साक्ष्य प्रस्तुत करने का मैं प्रयास कर रहा हूँ। इस लेख का प्रारम्भ शास्त्रोक्त प्रमाणों से करते हुए सर्वप्रथम हम तिलोयपण्णति को संदर्भित गाथा पर विचार करेंगे। इस यतिवृषभाचार्य द्वारा रचित ग्रंथ के स्वाध्याय काल में देखी (गाथा संख्या १४७१)। इस गाथा के पढ़ने के बाद अनेक प्रश्न उठ खड़े हए। ये श्रीधर केवली कब हए ? अन्तिम केवली तो जम्ब स्वामी कहे गये हैं, फिर ये चरम केवली कैसे हुए ? कुण्डलगिरि कौन-सा स्थान है ? इत्यादि । ग्रन्थ के अवलोकन से यह जाना जाता है कि केवली तो अनेक प्रकार के होते हैं पर प्रत्येक तीर्थंकर के समय दो तरह के केवली मुख्यतया कहे गये हैं : १. अनुबद्ध केवली और २. अननुबद्ध केवलो । अनुबद्ध केवली वे हैं जो भगवान् के समवशरण में स्थित अनेक शिष्यों में भगवान के पश्चात मख्य उपदेष्टा परंपरा में केवलज्ञानी होकर हुए । जो परिपाटी क्रम में नहीं हए किन्तु केवली हुए, वे अननुबद्ध केवली कहलाते हैं । इनकी संख्या प्रत्येक तीर्थंकर के समय अलग-अलग बताई गई है । उदाहरणार्थ, भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में केवली संख्या २०००० पर अनुबद्ध केवली केवल ८४ । श्री अजितनाथ तीर्थंकर के समवशरण में सम्पूर्ण केवल ज्ञानियों की संख्या २०००० पर अनुबद्ध केवली केवल ८४ । इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थकर के अनुबद्ध और अननुबद्ध केवली को संख्यायें भिन्न हैं। भगवान महावीर के समवशरण में केवली ज्ञानी ७०० थे और अनुबद्ध केवली केवल तीन थे । इसका यह अर्थ है कि भगवान् महावीर के पट्टशिष्य श्री गौतम गणधर थे, भगवान् महावीर के पश्चात् कार्तिक कृष्ण १५ को ही श्री गौतम केवली हुए। उनके पट्ट पर रहने वाले सुधर्माचार्य थे जो गणधर तो भगवान महावीर के थे पर उनको पट्ट श्री गौतम स्वामी के बाद प्राप्त हुआ। सुधर्माचार्य भी केवलो हुए । उनके पट्ट पर श्री जम्बू स्वामी हए जो केवली हुए। जम्बू स्वामी के पट्ट पर श्री विष्णुनन्दि तथा विष्णुनन्दि के पट्ट पर श्री नन्दिमित्र, नन्दिमित्र के पट्ट पर अपराजित, फिर गोवर्धन और उनके पट्ट पर श्रीभद्रबाहु (प्रथम) हुए, पर ये सब श्रुतकेवली हुए, केवली नहीं हुए। इनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा आगे भूतबलि आचार्य तक ६८३ वर्ष प्रमाण चली। यद्यपि आचार्य परम्परा आगे भी चली परन्तु यहाँ तक अंगज्ञान रहा । इसके बाद अंगधारी नहीं हुए। इस प्रकार पट्टधर शिष्यों की परम्परा में ३ केवली हुए । वे भगवान् महावीर के अनुबद्ध केवली थे। इनके सिवाय जो ७०० केवली समवशरण में थे, वे अननुबद्ध केवली थे। उनमें सभी केवली अपनी-अपनी आयु के अन्त में सिद्ध पद को प्राप्त हये होंगे । यद्यपि इनका समयोल्लेख नहीं है, तथापि पञ्चम काल की आयु १२० वर्ष कहीं है तब इनकी आयु भी अधिक से अधिक इतनो अथवा चतुर्थकाल में इनका जन्म होने से कुछ वर्ष अधिक भी रही हो, तो भी भगवान् के मुक्तिगमन काल के बाद प्रथम शताब्दी में ही इनका मुक्तिगमन सिद्ध है। इन ७०० केवलियों में अन्तिम श्री श्रीधर स्वामी थे जिनका तिलोयपण्णति में कुण्डलगिरि में मुक्तिगमन बताया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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